मन कै मते न चालिये, छाड़ि जीव की बाँणि।
ताकू केरे सूत ज्यूँ, उलटि अपूठा आँणि॥1॥
चिंता चिति निबारिए, फिर बूझिए न कोइ।
इंद्री पसर मिटाइए, सहजि मिलैगा सोइ॥2॥
आसा का ईंधन करूँ, मनसा करुँ विभूति।
जोगी फेरी फिल करौं, यों बिनवाँ वै सूति॥3॥
कबीर सेरी साँकड़ी चंचल मनवाँ चोर।
गुण गावै लैलीन होइ, कछू एक मन मैं और॥4॥
कबीर मारूँ मन कूँ, टूक टूक ह्नै जाइ।
विष की क्यारी बोई करि, लुणत कहा पछिताइ॥5॥
इस मन कौ बिसमल करौं, दीठा करौं अदीठ।
जै सिर राखौं आपणां, तौ पर सिरिज अंगीठ॥6॥
मन जाणैं सब बात, जाणत ही औगुण करै।
काहे की कुसलात, कर दीपक कूँ बैं पड़ै॥7॥
हिरदा भीतरि आरसी, मुख देषणाँ न जाइ।
मुख तौ तौपरि देखिए, जे मन की दुविधा जाइ॥8॥
कबीर मन मृथा भगा, खेत बिराना खाइ।
सूलाँ करि करि से किसी जब खसम पहूँचे आइ॥9॥
मन को मन मिलता नहीं तौ होता तन का भंग।
अब ह्नै रहु काली कांवली, ज्यौं दूजा चढ़ै न रंग॥10॥
मन दीया मन पाइए, मन बिन मन नहीं होइ।
मन उनमन उस अंड ज्यूँ, खनल अकासाँ जोइ॥9॥
मन गोरख मन गोविंदो, मन हीं औघड़ होइ।
जे मन राखै जतन करि, तौ आपै करता सोइ॥10॥
एक ज दोसत हम किया, जिस गलि लाल कबाइ।
एक जग धोबी धोइ मरै, तौ भी रंग न जाइ॥11॥
पाँणी ही तैं पातला, धूवाँ ही तै झींण।
पवनाँ बेगि उतावला, सो दोसत कबीरै कीन्ह॥12॥
कबीर तुरी पलांड़ियाँ, चाबक लीया हाथि।
दिवस थकाँ साँई मिलौं, पीछे पड़िहै राति।॥13॥
मनवां तो अधर बस्या, बहुतक झीणां होइ।
आलोकत सचु पाइया, कबहूँ न न्यारा सोइ॥14॥
मन न मार्या मन करि, सके न पंच प्रहारि।
सीला साच सरधा नहीं, इंद्री अजहुँ उद्यारि॥15॥
कबीर मन बिकरै पड़ा, गया स्वादि के साथ।
गलका खाया बरज्ताँ, अब क्यूँ आवै हाथि॥16॥
कबीर मन गाफिल भया, सुमिरण लागै नाहिं।
घणीं सहैगा सासनाँ, जम की दरगह माहिं॥17॥
कोटि कर्म पल मैं करै, यहु मन बिषिया स्वादि।
सतगुर सबद न मानई, जनम गँवाया बादि॥18॥
मैंमंता मन मारि रे, घटहीं माँहै घेरि।
जबहीं चालै पीठि दै, अंकुस दे दे फेरि॥19॥
जौ तन काँहै मन धरै, मन धरि निर्मल होइ।
साहिब सौ सनमुख रहै, तौ फिरि बालक होइ॥
मैंमंता मन मारि रे, नान्हाँ करि करि पीसि।
तब सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीसि॥20॥
कागद केरी नाँव री, पाँणी केरी गंग।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग॥21॥
कबीर यह मन कत गया, जो मन होता काल्हि।
डूंगरि बूठा मेह ज्यूँ, गया निबाँणाँ चालि॥22॥
मृतक कूँ धी जौ नहीं, मेरा मन बी है।
बाजै बाव बिकार की, भी मूवा जीवै॥23॥
काटि कूटि मछली, छींकै धरी चहोड़ि।
कोइ एक अषिर मन बस्या, दह मैं पड़ी बहोड़ि॥24॥
मूवा मन हम जीवत, देख्या जैसे मडिहट भूत।
मूवाँ पीछे उठि उठि लागै, ऐसा मेरा पूत॥47॥
मूवै कौंधी गौ नहीं, मन का किया बिनास।
कबीर मन पंषी भया, बहुतक चढ़ा अकास।
उहाँ ही तैं गिरि पड़ा, मन माया के पास॥25॥
भगति दुबारा सकड़ा राई दसवैं भाइ।
मन तौ मैंगल ह्नै रह्यो, क्यूँ करि सकै समाइ॥26॥
करता था तो क्यूँ रह्या, अब करि क्यूँ पछताइ।
बोवै पेड़ बबूल का, अब कहाँ तैं खाइ॥27॥
काया देवल मन धजा, विष्रै लहरि फरराइ।
मन चाल्याँ देवल चलै, ताका सर्बस जाइ॥28॥
मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ।
पाँणी मैं घीव गीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ॥29॥
काया कसूं कमाण ज्यूँ, पंचतत्त करि बांण।
मारौं तो मन मृग को, नहीं तो मिथ्या जाँण॥30॥292॥
कबीर हरि दिवान कै, क्यूँकर पावै दादि।
पहली बुरा कमाइ करि, पीछे करै फिलादि॥35॥