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चंद्रकांता / बाबू देवकीनन्दन खत्री / अध्याय-4

बयान - 1

वनकन्या को यकायक जमीन से निकल कर पैर पकड़ते देख वीरेंद्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहाँ वनकन्या क्यों कर आ पहुँची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं?

आखिर बहुत देर तक चुप रहने के बाद कुमार ने योगी से कहा - ‘मैं इस वनकन्या को जानता हूँ। इसने हमारे साथ बड़ा भारी उपकार किया है और मैं इससे बहुत कुछ वादा भी कर चुका हूँ, लेकिन मेरा वह वादा बिना कुमारी चंद्रकांता के मिले पूरा नहीं हो सकता। देखिए इसी खत में, जो आपने दिया है, क्या शर्त है? खुद इन्होंने लिखा है कि मुझसे और कुमारी चंद्रकांता से एक ही दिन शादी हो’ और इस बात को मैंने मंजूर किया है, पर जब कुमारी चंद्रकांता ही इस दुनिया से चली गई, तब मैं किसी से ब्याह नहीं कर सकता, इकरार दोनों से एक साथ ही शादी करने का है।’

योगी - (वनकन्या की तरफ देख कर) ‘क्यों री, तू मुझे झूठा बनाना चाहती है?’

वनकन्या - (हाथ जोड़ कर) ‘नहीं महाराज, मैं आपको कैसे झूठा बना सकती हूँ? आप इनसे यह पूछें कि इन्होंने कैसे मालूम किया कि चंद्रकांता मर गई?’

योगी - (कुमार से) ‘कुछ सुना। यह लड़की क्या कहती है? तुमने कैसा जाना कि कुमारी चंद्रकांता मर गई है?’

कुमार - (कुछ चौकन्ने हो कर) ‘क्या कुमारी जीती है?’

योगी – ‘जो मैं पूछता हूँ, पहले उसका तो जवाब दे दो?’

कुमार - ‘पहले जब मैं इस खोह में आया था तब इस जगह मैंने कुमारी चंद्रकांता और चपला को देखा था, बल्कि बातचीत भी की थी। आज उन दोनों की जगह इन दो लाशों को देखने से मालूम हुआ कि ये दोनों... (इतना कहा था कि गला भर आया।)

योगी - (तेजसिंह की तरफ देख कर) ‘क्या तुम्हारी अक्ल भी चरने चली गई? इन दोनों लाशों को देख कर इतना न पहचान सके कि ये मर्दों की लाशें हैं या औरतों की? इनकी लंबाई और बनावट पर भी कुछ ख्याल न किया।’

तेजसिंह - (घबरा कर तथा दोनों लाशों की तरफ गौर से देख और शर्मा कर) ‘मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने इन दोनों लाशों पर गौर नहीं किया, कुमार के साथ ही मैं भी घबरा गया। हकीकत में दोनों लाशें मर्दों की हैं, औरतों की नहीं।’

योगी – ‘ऐयारों से ऐसी भूल का होना कितने शर्म की बात है। इस जरा-सी भूल में कुमार की जान जा चुकी थी। (उँगली से इशारा करके) देखो उस तरफ उन दोनों पहाड़ियों के बीच में। इतना इशारा बहुत है, क्योंकि तुम इस तहखाने का हाल जानते हो, अपने उस्ताद से सुन चुके हो।’

तेजसिंह ने उस तरफ देखा, साथ ही टकटकी बँध गई। कुमार भी उसी तरफ देखने लगे, देवीसिंह और ज्योतिषी जी की निगाह भी उधर ही जा पड़ी। यकायक तेजसिंह घबरा कर बोले - ‘ओह, यह क्या हो गया?’ तेजसिंह के इतना कहने से और भी सभी का ख्याल उसी तरफ चला गया।

कुछ देर बाद योगी जी से और बातचीत करने के लिए तेजसिंह उनकी तरफ घूमे मगर उनको न पाया, वनकन्या भी दिखाई न पड़ी, बल्कि यह भी मालूम न हुआ कि वे दोनों किस राह से आए थे और कब चले गए। जब तक वनकन्या और योगी जी यहाँ थे, उनके आने का रास्ता भी खुला हुआ था, दीवार में दरार मालूम पड़ती थी, जमीन फटी हुई दिखाई देती थी, मगर अब कहीं कुछ नहीं था।

बयान - 2

आखिर कुँवर वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह से कहा - ‘मुझे अभी तक यह न मालूम हुआ कि योगी जी ने उँगली के इशारे से तुम्हें क्या दिखाया और इतनी देर तक तुम्हारा ध्यान कहाँ अटका रहा, तुम क्या देखते रहे और अब वे दोनों कहाँ गायब हो गए।’

तेजसिंह - ‘क्या बताएँ कि वे दोनों कहाँ चले गए, कुछ खुलासा हाल उनसे न मिल सका, अब बहुत आश्चर्य करना पड़ेगा।’

वीरेंद्र – ‘आखिर तुम उस तरफ क्या देख रहे थे?’

तेजसिंह – ‘हम क्या देखते थे, इस हाल के कहने में बड़ी देर लगेगी और अब यहाँ इन मुर्दों की बदबू से रुका नहीं जाता। इन्हें इसी जगह छोड़, इस तिलिस्म के बाहर चलिए, वहाँ जो कुछ हाल है कहूँगा। मगर यहाँ से चलने के पहले उसे देख लीजिए, जिसे इतनी देर तक मैं ताज्जुब से देख रहा था। वह दोनों पहाड़ियों के बीच में जो दरवाजा खुला नजर आ रहा है, सो पहले बंद था, यही ताज्जुब की बात थी। अब चलिए, मगर हम लोगों को कल फिर यहाँ लौटना पड़ेगा। यह तिलिस्म ऐसे राह पर बना हुआ है कि अंदर-अंदर यहाँ तक आने में लगभग पाँच कोस का फासला मालूम पड़ता है और बाहर की राह से अगर इस तहखाने तक आएँ तो पंद्रह कोस चलना पड़ेगा।

कुमार - ‘खैर, यहाँ से चलो, मगर इस हाल को खुलासा सुने बिना तबीयत घबरा रही है।’

जिस तरह चारों आदमी तिलिस्म की राह से यहाँ तक पहुँचे थे उसी तरह तिलिस्म के बाहर हुए। आज इन लोगों को बाहर आने तक आधी रात बीत गई। इनके लश्कर वाले घबरा रहे थे कि पहले तो पहर दिन बाकी रहते बाहर निकल आते थे, आज देर क्यों हुई? जब ये लोग अपने खेमे में पहुँचे तो सभी का जी ठिकाने हुआ। तेजसिंह ने कुमार से कहा - ‘इस वक्त आप सो रहें हैं, कल आपसे जो कुछ कहना है कहूँगा।’

बयान - 3

यह तो मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकांता जीती है, मगर कहाँ है और उस खोह में से क्यों कर निकल गई, वनकन्या कौन है, योगी जी कहाँ से आए, तेजसिंह को उन्होंने क्या दिखाया इत्यादि बातों को सोचते और ख्याल दौड़ाते कुमार ने सुबह कर दी, एक घड़ी भी नींद न आई। अभी सवेरा नहीं हुआ कि पलँग से उतर जल्दी के मारे खुद तेजसिंह के डेरे में गए। वे अभी तक सोए थे, उन्हें जगाया।

तेजसिंह ने उठ कर कुमार को सलाम किया। जी में तो समझ ही गए थे कि वही बात पूछने के लिए कुमार बेताब हैं और इसी से इन्होंने आ कर मुझे इतनी जल्दी उठाया है, मगर फिर भी पूछा - ‘कहिए क्या है जो इतने सवेरे आप उठे हैं?’

कुमार – ‘रात भर नींद नहीं आई, अब जो कुछ कहना हो, जल्दी कहो, जी बेचैन है।’

तेजसिंह – ‘अच्छा आप बैठ जाइए, मैं कहता हूँ।’

कुमार बैठ गए और देवीसिंह तथा ज्योतिषी जी को भी उसी जगह बुलवा भेजा। जब वे आ गए, तेजसिंह ने कहना शुरू किया - ‘यह तो मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ कि कुमारी चंद्रकांता को कौन ले गया या वह योगी कौन थे और वनकन्या की मदद क्यों करने लगे, मगर उन्होंने जो कुछ मुझे दिखाया वह इतने ताज्जुब की बात थी कि मैं उसे देखने में ही इतना डूबा कि योगी जी से कुछ पूछ न सका और वे भी बिना कुछ खुलासा हाल कहे चलते बने। उस दिन पहले-पहल जब मैं आपको खोह में ले गया, तब वहाँ का हाल जो कुछ मैंने अपने गुरु जी से सुना था आपसे कहा था, याद है?’

कुमार - ‘बखूबी याद है।’

तेजसिंह - ‘मैंने क्या कहा था?’

कुमार - ‘तुमने यही कहा था कि उसमें बड़ा भारी खजाना है, मगर उस पर एक छोटा-सा तिलिस्म भी बँधा हुआ है जो बहुत सहज में टूट सकेगा, क्योंकि उसके तोड़ने की तरकीब तुम्हारे उस्ताद तुम्हें कुछ बता गए हैं।’

तेजसिंह – ‘हाँ ठीक है, मैंने यही कहा था। उस खोह में मैंने आपको एक दरवाजा दो पहाड़ियों के बीच में दिखाया था, जिसे योगी ने मुझे इशारे से बताया था। उस दरवाजे को खुला देख मुझे मालूम हो गया कि उस तिलिस्म को किसी ने तोड़ डाला और वहाँ का खजाना ले लिया, उसी वक्त मुझे यह ख्याल आया कि योगी ने उस दरवाजे की तरफ इसीलिए इशारा किया कि जिसने तिलिस्म तोड़ कर वह खजाना लिया है, वही कुमारी चंद्रकांता को भी ले गया होगा। इसी सोच और आश्चर्य में डूबा हुआ मैं एकटक उस दरवाजे की तरफ देखता रह गया और योगी महाराज चलते बने।

तेजसिंह की इतनी बात सुन कर बड़ी देर तक कुमार चुप बैठे रहे, बदहवासी-सी छा गई, इसके बाद सँभल कर बैठे और फिर बोले -

कुमार - ‘तो कुमारी चंद्रकांता फिर एक नई बला में फँस गई?’

तेजसिंह – ‘मालूम तो ऐसा ही पड़ता है।’

कुमार - ‘तब इसका पता कैसे लगे? अब क्या करना चाहिए?’

तेजसिंह – ‘पहले हम लोगों को उस खोह में चलना चाहिए। वहाँ चल कर उस तिलिस्म को देखें, जिसे तोड़ कर कोई दूसरा वह खजाना ले गया है, शायद वहाँ कुछ मिले या कोई निशान पाया जाए, इसके बाद जो कुछ सलाह होगी, की जाएगी।’

कुमार - ‘अच्छा चलो, मगर इस वक्त एक बात का ख्याल और मेरे जी में आता है।’

तेजसिंह – ‘वह क्या?’

कुमार - ‘जब बद्रीनाथ को कैद करने उस खोह में गए थे और दरवाजा न खुलने पर वापस आए, उस वक्त भी शायद उस दरवाजे को भीतर से उसी ने बंद कर लिया हो, जिसने उस तिलिस्म को तोड़ा है। वह उस वक्त उसके अंदर रहा होगा।’

तेजसिंह – ‘आपका ख्याल ठीक है, जरूर यही बात है, इसमें कोई शक नहीं बल्कि उसी ने शिवदत्त को भी छुड़ाया होगा।’

कुमार - ‘हो सकता है, मगर जब छूटने पर शिवदत्त ने बेईमानी पर कमर बाँधी और पीछे मेरे लश्कर पर धावा मारा तो क्या उसी ने फिर शिवदत्त को गिरफ्तार करके उस खोह में डाल दिया? और क्या वह पुर्जा भी उसी का लिखा था, जो शिवदत्त के गायब होने के बाद उसके पलँग पर मिला था?’

तेजसिंह – ‘हो सकता है।’

कुमार - ‘तो इससे मालूम होता है कि वह हमारा दोस्त भी है, मगर दोस्त है तो फिर कुमारी को क्यों ले गया?’

तेजसिंह – ‘इसका जवाब देना मुश्किल है, कुछ अक्ल काम नहीं करती, सिवाय इसके शिवदत्त के छूटने के बाद भी तो आपको उस खोह में जाने का मौका पड़ा था और हम लोग भी आपको खोजते हुए उस खोह में पहुँचे, उस वक्त चपला ने तो नहीं कहा कि इस खोह में कोई आया था जिसने शिवदत्त को एक दफा छुड़ा के फिर कैद कर दिया। उसने उसका कोई जिक्र नहीं किया, बल्कि उसने तो कहा था कि हम शिवदत्त को बराबर इसी खोह में देखते हैं, न उसने कोई खौफ की बात बताई।’

कुमार - ‘मामला तो बहुत ही पेचीदा मालूम पड़ता है, मगर तुम भी कुछ गलती कर गए।’

तेजसिंह – ‘मैंने क्या गलती की?’

कुमार - ‘कल योगी ने दीवार से निकल कर मुझे कूदने से रोका, इसके बाद जमीन पर लात मारी और वहाँ की जमीन फट गई और वनकन्या निकल आई, तो योगी कोई देवता तो थे ही नहीं कि लात मार के जमीन फाड़ डालते। जरूर वहाँ पर जमीन के अंदर कोई तरकीब है। तुम्हें भी मुनासिब था कि उसी तरह लात मार कर देखते कि जमीन फटती है या नहीं।’

तेजसिंह – ‘यह आपने बहुत ठीक कहा, तो अब क्या करें?’

कुमार - ‘आज फिर चलो, शायद कुछ काम निकल जाए, अभी खोह में जाने की क्या जरूरत है?’

तेजसिंह – ‘ठीक है, चलिए।’

आज फिर कुमार और तीनों ऐयार उस तिलिस्म में गए। मालूमी राह से घूमते हुए उसी दालान में पहुँचे जहाँ योगी निकले थे। जा कर देखा तो वे दोनों सड़ी और जानवरों की खाई हुई लाशें वहाँ न थीं, जमीन धोई–धोई साफ मालूम पड़ती थी। थोड़ी देर तक ताज्जुब में भरे ये लोग खड़े रहे, इसके बाद तेजसिंह ने गौर करके उसी जगह जोर से लात मारी जहाँ योगी ने लात मारी थी।

फौरन उसी जगह से जमीन फट गई और नीचे उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियाँ नजर पड़ीं। खुशी-खुशी ये चारों आदमी नीचे उतरे। वहाँ एक अँधेरी कोठरी में घूम-घूम कर इन लोगों को कोई दूसरा दरवाजा खोजना पड़ा मगर पता न लगा। लाचार हो कर फिर बाहर निकल आए, लेकिन वह फटी हुई जमीन फिर न जुड़ी, उसी तरह खुली रह गई।

तेजसिंह ने कहा - ‘मालूम होता है कि भीतर से बंद करने की कोई तरकीब इसमें है जो हम लोगों को मालूम नहीं, खैर, जो भी हो काम कुछ न निकला, अब बिना बाहर की राह इस खोह में आए कोई मतलब सिद्ध न होगा।’

चारों आदमी तिलिस्म के बाहर हुए। तेजसिंह ने ताला बंद कर दिया।

एक रोज टिक कर कुँवर वीरेंद्रसिंह ने फतहसिंह सेनापति को नायब मुकर्रर करके चुनारगढ़ भेज देने के बाद नौगढ़ की तरफ कूच किया और वहाँ पहुँच कर अपने पिता से मुलाकात की। राजा सुरेंद्रसिंह के इशारे से जीतसिंह ने रात को एकांत में तिलिस्म का हाल कुँवर वीरेंद्रसिंह से पूछा। उसके जवाब में जो कुछ ठीक-ठीक हाल था, कुमार ने उनसे कहा।

जीतसिंह ने उसी जगह तेजसिंह को बुलवा कर कहा - ‘तुम दोनों ऐयार कुमार को साथ ले कर खोह में जाओ और उस छोटे तिलिस्म को कुमार के हाथ से फतह करवाओ जिसका हाल तुम्हारे उस्ताद ने तुमसे कहा था, जो कुछ हुआ है सब इसी बीच में खुल जाएगा। लेकिन तिलिस्म फतह करने के पहले दो काम करो, एक तो थोड़े आदमी ले जाओ और महाराज शिवदत्त को उनकी रानी समेत यहाँ भेजवा दो, दूसरे जब खोह के अंदर जाना तो दरवाजा भीतर से बंद कर लेना। अब महाराज से मुलाकात करने और कुछ पूछने की जरूरत नहीं, तुम लोग इसी वक्त यहाँ से कूच कर जाओ और रानी के वास्ते एक डोली भी साथ लिवाते जाओ।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह ने तीनों ऐयारों और थोड़े आदमियों को साथ ले खोह की तरफ कूच किया। सुबह होते-होते ये लोग वहाँ पहुँचे। सिपाहियों को कुछ दूर छोड़, चारों आदमी खोह का दरवाजा खोल कर अंदर गए।

बयान - 4

राजा सुरेंद्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुँचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी-बेड़ी खोल दी गई, मगर हिफाजत के लिए मकान के चारों तरफ सख्त पहरा मुकर्रर कर दिया गया।

दूसरे दिन राजा सुरेंद्रसिंह और जीतसिंह आपस में कुछ राय कर के पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल इन चारों कैदी ऐयारों को साथ ले उस मकान में गए जिसमें महाराज शिवदत्त और उनकी महारानी को रखा था।

राजा सुरेंद्रसिंह के आने की खबर सुन कर महाराज शिवदत्त अपनी रानी को साथ ले कर दरवाजे तक इस्तकबाल (अगवानी) के लिए आए और मकान में ले जा कर आदर के साथ बैठाया। इसके बाद खुद दोनों आदमी सामने बैठे। हथकड़ी और बेड़ी पहने ऐयार भी एक तरफ बैठाए गए। महाराज शिवदत्त ने पूछा - ‘इस वक्त आपने किसलिए तकलीफ की?’

राजा सुरेंद्रसिंह ने इसके जवाब में कहा - ‘आज तक आपके जी में जो कुछ आया किया, क्रूरसिंह के बहकाने से हम लोगों को तकलीफ देने के लिए बहुत कुछ उपाय किया, धोखा दिया, लड़ाई ठानी, मगर अभी तक परमेश्वर ने हम लोगों की रक्षा की। क्रूरसिंह, नाजिम और अहमद भी अपनी सजा को पहुँच गए और हम लोगों की बुराई सोचते-सोचते ही मर गए। अब आपका क्या इरादा है? इसी तरह कैद में पड़े रहना मंजूर है या और कुछ सोचा है?’

महाराज शिवदत्त ने कहा - ‘आपकी और कुँवर वीरेंद्रसिंह की बहादुरी में कोई शक नहीं, जहाँ तक तारीफ की जाए थोड़ी है। परमेश्वर आपको खुश रखे और पोते का सुख दिखलाए, उसे गोद में ले कर आप खिलाएँ और मैंने जो कुछ किया उसे आप माफ करें। मुझे राज्य की अब बिल्कुल अभिलाषा नहीं है। चुनारगढ़ को आपने जिस तरह फतह किया और वहाँ जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। मैं अब सिर्फ एक बात चाहता हूँ, परमेश्वर के लिए तथा अपनी जवाँमर्दी और बहादुरी की तरफ ख्याल करके मेरी इच्छा पूरी कीजिए।’ इतना कह हाथ जोड़ कर सामने खड़े हो गए।

राजा सुरेंद्र – ‘जो कुछ आपके जी में हो कहिए, जहाँ तक हो सकेगा मैं उसे पूरा करूँगा।’

शिवदत्त – ‘जो कुछ मैं चाहता हूँ आप सुन लीजिए। मेरे आगे कोई लड़का नहीं है जिसकी मुझे फिक्र हो, हाँ, चुनारगढ़ के किले में मेरे रिश्तेदारों की कई बेवाएँ हैं, जिनकी परवरिश मेरे ही सबब से होती थी, उनके लिए आप कोई ऐसा बंदोबस्त कर दें जिससे उन बेचारियों की जिंदगी आराम से गुजरे। और भी रिश्ते के कई आदमी हैं, लेकिन मैं उनके लिए सिफारिश न करूँगा बल्कि उनका नाम भी न बतलाऊँगा, क्योंकि वे मर्द हैं, हर तरह से कमा-खा सकते हैं, और हमको अब आप कैद से छुट्टी दीजिए। अपनी स्त्री को साथ ले जंगल में चला जाऊँगा, किसी जगह बैठ कर ईश्वर का नाम लूँगा, अब मुँह किसी को दिखाना नहीं चाहता, बस और कोई आरजू नहीं है।’

सुरेंद्र – ‘आपके रिश्ते की जितनी औरतें चुनारगढ़ में हैं, सभी की अच्छी तरह से परवरिश होगी, उनके लिए आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं, मगर आपको छोड़ देने में कई बातों का ख्याल है।’

शिवदत्त – ‘कुछ नहीं, (जनेऊ हाथ में ले कर) मैं धर्म की कसम खाता हूँ, अब जी में किसी तरह की बुराई नहीं है, कभी आपकी बुराई न सोचूँगा।’

सुरेंद्र – ‘अभी आपकी उम्र भी इस लायक नहीं हुई है कि आप तपस्या करें।’

शिवदत्त – ‘जो हो, अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दीजिए।’

सुरेंद्र – ‘आपकी कसम का तो मुझे कोई भरोसा नहीं, मगर आप जो यह कहते हैं कि अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दें तो मैं छोड़ देता हूँ, जहाँ जी चाहे जाइए और जो कुछ आपको खर्च के लिए चाहिए ले लीजिए।’

शिवदत्त – ‘मुझे खर्च की कोई जरूरत नहीं, बल्कि रानी के बदन पर जो कुछ जेवर हैं, वह भी उतार के दिए जाता हूँ।’

यह कह कर रानी की तरफ देखा, उस बेचारी ने फौरन अपने बदन के सार गहने उतार दिए।

सुरेंद्र – ‘रानी के बदन से गहने उतरवा दिए यह अच्छा नहीं किया।’

शिवदत्त – ‘जब हम लोग जंगल में ही रहना चाहते हैं तो यह हत्या क्यों लिए जाएँ? क्या चोरों और डकैतों के हाथों से तकलीफ उठाने के लिए और रात-भर सुख की नींद न सोने के लिए?’

सुरेंद्र - (उदासी से) ‘देखो शिवदत्तसिंह, तुम हाल ही तक चुनारगढ़ की गद्दी के मालिक थे, आज तुम्हारा इस तरह से जाना मुझे बुरा मालूम होता है। चाहे तुम हमारे दुश्मन थे तो भी मुझको इस बेचारी तुम्हारी रानी पर दया आती है। मैंने तो तुम्हें छोड़ दिया, चाहे जहाँ जाओ, मगर एक दफा फिर कहता हूँ, अगर तुम यहाँ रहना कबूल करो तो मेरे राज्य का कोई काम जो चाहो मैं खुशी से तुमको दूँ, तुम यहीं रहो।’

शिवदत्त – ‘नहीं, अब यहाँ न रहूँगा, मुझे छुट्टी दे दीजिए। इस मकान के चारों तरफ से पहरा हटा दीजिए, रात को जब मेरा जी चाहेगा चला जाऊँगा।’

सुरेंद्र – ‘अच्छा, जैसी तुम्हारी मर्जी।’

महाराज शिवदत्त के चारों ऐयार चुपचाप बैठे सब बातें सुन रहे थे। बात खतम होने पर दोनों राजाओं के चुप हो जाने पर महाराज शिवदत्त की तरफ देख कर पंडित बद्रीनाथ ने कहा - ‘आप तो अब तपस्या करने जाते हैं, हम लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?’

शिवदत्त – ‘जो तुम लोगों के जी में आए करो, जहाँ चाहो जाओ, हमने अपनी तरफ से तुम लोगों को छुट्टी दे दी, बल्कि अच्छी बात हो कि तुम लोग कुँवर वीरेंद्रसिंह के साथ रहना पसंद करो, क्योंकि ऐसा बहादुर और धार्मिक राजा तुम लोगों को न मिलेगा।’

बद्रीनाथ - ‘ईश्वर आपको कुशल से रखे, आज से हम लोग कुँवर वीरेंद्रसिंह के हुए, आप अपने हाथों हम लोगों की हथकड़ी-बेड़ी खोल दीजिए।’

महाराज शिवदत्त ने अपने हाथों से चारों ऐयारों की हथकड़ी-बेड़ी खोल दी, राजा सुरेंद्रसिंह और जीतसिंह ने कुछ भी न कहा कि आप इनकी बेड़ी क्यों खोलते हैं। हथकड़ी-बेड़ी खुलने के बाद चारों ऐयार राजा सुरेंद्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। जीतसिंह ने कहा - ‘अभी एक दफा आप लोग चारों ऐयार, मेरे सामने आइए फिर वहाँ जा कर खड़े होइए, पहले अपनी मामूली रस्म तो अदा कर लीजिए।’

मुस्कुराते हुए पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आए और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में ले कर कसम खा कर बोले - ‘आज से मैं राजा सुरेंद्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया करूँगा। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी को अपना भाई समझूंगा। बस अब तो रस्म पूरी हो गई?’

‘बस और कुछ बाकी नहीं।’ इतना कह कर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर ये चारों ऐयार राजा सुरेंद्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए।

राजा सुरेंद्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा - ‘अच्छा अब मैं विदा होता हूँ। पहरा अभी उठाता हूँ, रात को जब जी चाहे चले जाना, मगर आओ गले तो मिल लें।’

शिवदत्त - (हाथ जोड़ कर) ‘नहीं, मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूँ।’

‘नहीं जरूर ऐसा करना होगा।’ कह कर सुरेंद्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से विदा हो, अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गए।

जीतसिंह, बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिए राजा सुरेंद्रसिंह अपने दीवानखाने में जा कर बैठे। घंटों तक महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पा कर जीतसिंह ने अर्ज किया - ‘अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गए हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पंद्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहाँ से दूर बेरादरी में कुछ काम है, जाना जरूरी है।’

सुरेंद्रसिंह – ‘इधर एक-एक, दो-दो रोज की कई दफा तुम छुट्टी ले चुके हो।’

जीतसिंह – ‘जी हाँ, घर ही में कुछ काम था मगर अब की तो दूर जाना है इसलिए पंद्रह दिन की छुट्टी माँगता हूँ। मेरी जगह पर पंडित बद्रीनाथ जी काम करेंगे, किसी बात का हर्ज न होगा।’

सुरेंद्रसिंह – ‘अच्छा जाओ, लेकिन जहाँ तक हो सके जल्द आना।’

राजा सुरेंद्रसिंह से विदा हो जीतसिंह अपने घर गए और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने-बुझाने के लिए साथ लेते गए।

बयान - 5

कुँवर वीरेंद्रसिंह तीनों ऐयारों के साथ खोह के अंदर घूमने लगे। तेजसिंह ने इधर-उधर के कई निशानों को देख कर कुमार से कहा - ‘बेशक यहाँ का छोटा तिलिस्म तोड़ कर कोई खजाना ले गया। जरूर कुमारी चंद्रकांता को भी उसी ने कैद किया होगा। मैंने अपने उस्ताद की जुबानी सुना था कि इस खोह में कई इमारतें और बाग देखने बल्कि रहने लायक हैं। शायद वह चोर इन्हीं में कहीं मिल भी जाए तो ताज्जुब नहीं।’

कुमार - ‘तब जहाँ तक हो सके काम में जल्दी करनी चाहिए।’

तेजसिंह – ‘बस हमारे साथ चलिए, अभी से काम शुरू हो जाए।’

यह कह कर तेजसिंह कुँवर वीरेंद्रसिंह को उस पहाड़ी के नीचे ले गए जहाँ से पानी का चश्मा शुरू होता था। उस चश्मे से उत्तर को चालीस हाथ नाप कर कुछ जमीन खोदी।

कुमार से तेजसिंह ने कहा था – ‘इस छोटे तिलिस्म के तोड़ने और खजाना पाने की तरकीब किसी धातु के पत्र पर खुदी हुई यहीं जमीन में गड़ी है। मगर इस वक्त यहाँ खोदने से उसका कुछ पता न लगा, हाँ एक खत उसमें से जरूर मिला जिसको कुमार ने निकाल कर पढ़ा। यह लिखा था - ‘अब क्या खोदते हो। मतलब की कोई चीज नहीं है, जो था सो निकल गया, तिलिस्म टूट गया। अब हाथ मल के पछताओगे।’

तेजसिंह - (कुमार की तरफ देख कर) ‘देखिए यह पूरा सबूत तिलिस्म टूटने का मिल गया।’

कुमार - ‘जब तिलिस्म टूट ही चुका है तो उसके हर एक दरवाजे भी खुले होंगे?’

‘हाँ, जरूर खुले होंगे’, यह कह कर तेजसिंह पहाड़ियों पर चढ़ाते-घुमाते-फिराते कुमार को एक गुफा के पास ले गए जिसमें सिर्फ एक आदमी के जाने लायक राह थी।

तेजसिंह के कहने से एक-एक कर चारों आदमी उस गुफा में घुसे। भीतर कुछ दूर जा कर खुलासी जगह मिली, यहाँ तक कि चारों आदमी खड़े हो कर चलने लगे, मगर टटोलते हुए, क्योंकि बिल्कुल अँधेरा था, हाथ तक नहीं दिखाई देता था। चलते-चलते कुँवर वीरेंद्रसिंह का हाथ एक बंद दरवाजे पर लगा जो धक्का देने से खुल गया और भीतर बखूबी रोशनी मालूम होने लगी।

चारों आदमी अंदर गए, छोटा-सा बाग देखा जो चारों तरफ से साफ, कहीं तिनके का नामो-निशान नहीं, मालूम होता था अभी कोई झाड़ू दे कर गया है। इस बाग में कोई इमारत न थी, सिर्फ एक फव्वारा बीच में था, मगर यह नहीं मालूम होता था कि इसका हौज कहाँ है।

बाग में घूमने और इधर-उधर देखने से मालूम हुआ कि ये लोग पहाड़ी के ऊपर चले गए हैं। जब फव्वारे के पास पहुँचे तो एक बात ताज्जुब की दिखाई पड़ी। उस जगह जमीन पर जनाने हाथ का एक जोड़ा कंगन नजर पड़ा, जिसे देखते ही कुमार ने पहचान लिया कि कुमारी चंद्रकांता के हाथ का है। झट उठा लिया, आँखों से आँसू की बूँदे टपकने लगीं।

तेजसिंह से पूछा - ‘यह कंगन यहाँ क्यों कर पहुँचा? इसके बारे में क्या ख्याल किया जाए?’

तेजसिंह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक कागज पर जा पड़ी जो उसी जगह खत की तरह मोड़ा पड़ा हुआ था। जल्दी से उठा लिया और खोल कर पढ़ा, यह लिखा था -

‘बड़ी होशियारी से जाना, ऐयार लोग पीछा करेंगे, ऐसा न हो कि पता लग जाए, नहीं तो तुम्हारा और कुमार दोनों का ही बड़ा भारी नुकसान होगा। अगर मौका मिला तो कल आऊँगी

- वही।’

इस पुरजे को पढ़ कर तेजसिंह किसी सोच में पड़ गए, देर तक चुपचाप खड़े न जाने क्या-क्या विचार करते रहे। आखिर कुमार से न रहा गया, पूछा - ‘क्यों क्या सोच रहे हो? इस खत में क्या लिखा है?’

तेजसिंह ने वह खत कुमार के हाथ में दे दी, वे भी पढ़ कर हैरान हो गए, बोले - ‘इसमें जो कुछ लिखा है उस पर गौर करने से तो मालूम होता है कि हमारे और वनकन्या के मामले में ही कुछ है, मगर किसने लिखा यह पता नहीं लगता।’

तेजसिंह – ‘आपका कहना ठीक है पर मैं एक और बात सोच रहा हूँ जो इससे भी ताज्जुब की है।’

कुमार - ‘वह क्या?’

तेजसिंह – ‘इन हरफों को मैं कुछ-कुछ पहचानता हूँ, मगर साफ समझ में नहीं आता क्योंकि लिखने वाले ने अपना हरफ छिपाने के लिए कुछ बिगाड़ कर लिखा है।’

कुमार - ‘खैर, इस खत को रख छोड़ो, कभी-न-कभी कुछ पता लग ही जाएगा, अब आगे का काम करो।’

फिर ये लोग घूमने लगे, बाग के कोने में इन लोगों को छोटी-छोटी चार खिड़कियाँ नजर आईं, जो एक के साथ एक बराबर-सी बनी हुई थीं। पहले चारों आदमी बाईं तरफ वाली खिड़की में घुसे। थोड़ी दूर जा कर एक दरवाजा मिला जिसके आगे जाने की बिल्कुल राह न थी, क्योंकि नीचे बेढ़ब खतरनाक पहाड़ी दिखाई देती थी।

इधर-उधर देखने और खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह वही दरवाजा है जिसको इशारे से उस योगी ने तेजसिंह को दिखाया था। इस जगह से वह दालान बहुत साफ दिखाई देता था, जिसमें कुमारी चंद्रकांता और चपला बहुत दिनों तक बेबस पड़ी थीं।

ये लोग वापस होकर फिर उसी बाग में चले आए और उसके बगल वाली दूसरी खिड़की में घुसे जो बहुत अँधेरी थी, कुछ दूर जाने पर उजाला नजर पड़ा, बल्कि हद तक पहुँचने पर एक बड़ा-सा खुला फाटक मिला जिससे बाहर होकर ये चारों आदमी खड़े हो, चारों ओर निगाह दौड़ाने लगे।

लंबे-चौड़े मैदान के सिवाय और कुछ न नजर आया। तेजसिंह ने चाहा कि घूम कर इस मैदान का हाल मालूम करें। मगर कई सबबों से वे ऐसा न कर सके। एक तो धूप बहुत कड़ी थी, दूसरे कुमार ने घूमने की राय न दी और कहा - ‘फिर जब मौका होगा इसको देख लेंगे। इस वक्त तीसरी व चौथी खिड़की में चल कर देखना चाहिए कि क्या है।’

चारों आदमी लौट आए और तीसरी खिड़की में घुसे। एक बाग में पहुँचते ही देखा वनकन्या कई सखियों को लिए घूम रही है, लेकिन कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह को देखते ही तेजी के साथ बाग के कोने में जा कर गायब हो गई।

चारों आदमियो ने उसका पीछा किया और घूम-घूम कर तलाश भी किया मगर कहीं कुछ भी पता न लगा, हाँ जिस कोने में जा कर वे सब गायब हुई थीं, वहाँ जाने पर एक बंद दरवाजा जरूर देखा, जिसके खोलने की बहुत तरकीब की मगर न खुला।

उस बाग के एक तरफ छोटी-सी बारहदरी थी। लाचार हो कर ऐयारों के साथ कुँवर वीरेंद्रसिंह उस बारहदरी में एक ओर बैठ कर सोचने लगे - ‘यह वनकन्या यहाँ कैसे आई? क्या उसके रहने का यही ठिकाना है? फिर हम लोगों को देख कर भाग क्यों गई? क्या अभी हमसे मिलना उसे मंजूर नहीं?’

इन सब बातों को सोचते-सोचते शाम हो गई मगर किसी की अक्ल ने कुछ काम न किया।

इस बाग में मेवों के दरख्त बहुत थे। और एक छोटा-सा चश्मा भी था। चारों आदमियों ने मेवों से अपना पेट भरा और चश्मे का पानी पी कर उसी बारहदरी में जमीन पर ही लेट गए। यह राय ठहरी कि रात को इसी बारहदरी में गुजारा करेंगे, सवेरे जो कुछ होगा देखा जाएगा।

देवीसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल कर चिराग जलाया, इसके बाद बैठ कर आपस में बातें करने लगे।

कुमार - ‘चंद्रकांता की मुहब्बत में हमारी दुर्गति हो गई, इस पर भी अब तक कोई उम्मीद मालूम नहीं पड़ती।’

तेजसिंह – ‘कुमारी सही-सलामत हैं और आपको मिलेंगी इसमें कोई शक नहीं। जितनी मेहनत से जो चीज मिलती है, उसके साथ उतनी ही खुशी में जिंदगी बीतती है।’

कुमार - ‘तुमने चपला के लिए कौन-सी तकलीफ उठाई?

तेजसिंह – ‘तो चपला ही ने मेरे लिए कौन-सा दुख भोगा? जो कुछ किया, कुमारी चंद्रकांता के लिए।’

ज्योतिषी - ‘क्यों तेजसिंह, क्या यह चपला तुम्हारी ही जाति की है?’

तेजसिंह – ‘इसका हाल तो कुछ मालूम नहीं कि यह कौन जात है, लेकिन जब मुहब्बत हो गई तो फिर चाहे कोई जात हो।’

ज्योतिषी - ‘लेकिन क्या उसका कोई वली वारिस भी नहीं है? अगर तुम्हारी जाति की न हुई तो उसके माँ-बाप कब कबूल करेंगे?’

तेजसिंह – ‘अगर कुछ ऐसा-वैसा हुआ तो उसको मार डालूँगा और अपनी भी जान दे दूँगा।’

कुमार - ‘कुछ इनाम दो तो हम चपला का हाल तुम्हें बता दें।’

तेजसिंह – ‘इनाम में हम चपला ही को आपके हवाले कर देंगे।’

कुमार - ‘खूब याद रखना, चपला फिर हमारी हो जाएगी।’

तेजसिंह – ‘जी हाँ, जी हाँ, आपकी हो जाएगी।’

कुमार - ‘चपला हमारी ही जाति की है। इसका बाप बड़ा भारी जमींदार और पूरा ऐयार था। इसको सात दिन की छोड़ कर इसकी माँ मर गई। इसके बाप ने इसे पाला और ऐयारी सिखाई, अभी कुछ ही वर्ष गुजरे हैं कि इसका बाप भी मर गया। महाराज जयसिंह उसको बहुत मानते थे, उसने उनके बहुत बड़े-बड़े काम किए थे। मरने के वक्त अपनी बिल्कुल जमा-पूँजी और चपला को महाराज के सुपुर्द कर गया, क्योंकि उसका कोई वारिस नहीं था। महाराज जयसिंह इसको अपनी लड़की की तरह मानते हैं और महारानी भी इसे बहुत चाहती हैं। कुमारी चंद्रकांता का और इसका लड़कपन ही से साथ होने के सबब दोनों में बड़ी मुहब्बत है।’

तेजसिंह – ‘आज तो आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई, बहुत दिनों से इसका खुटका लगा हुआ था, पर कई बातों को सोच कर आपसे नहीं पूछा। भला यह बातें आपको मालूम कैसे हुईं?’

कुमार - ‘खास चंद्रकांता की जुबानी।’

तेजसिंह – ‘तब तो बहुत ठीक है।’

तमाम रात बातचीत में गुजर गई, किसी को नींद न आई। सवेरे ही उठ कर जरूरी कामों से छुट्टी पा उसी चश्मे में नहा कर संध्या-पूजा की और कुछ मेवा खा जिस राह से उस बाग में गए थे उसी राह से लौट आए और चौथी खिड़की के अंदर क्या है, यह देखने के लिए उसमें घुसे। उसमें भी जा कर एक हरा-भरा बाग देखा, जिसे देखते ही कुमार चौंक पड़े।

बयान - 6

तेजसिंह ने कुँवर वीरेंद्रसिंह से पूछा - ‘आप इस बाग को देख कर चौंके क्यों? इसमें कौन-सी अद्भुत चीज आपको नजर पड़ी?’

कुमार - ‘मैं इस बाग को पहचान गया।’

तेजसिंह - (ताज्जुब से) ‘आपने इसे कब देखा था?’

कुमार - ‘यह वही बाग है जिसमें मैं लश्कर से लाया गया था। इसी में मेरी आँखें खुली थीं, इसी बाग में जब आँखें खुलीं तो कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर देखी थी और इसी बाग में खाना भी मिला था, जिसे खाते ही मैं बेहोश हो कर दूसरे बाग में पहुँचाया गया था। वह देखो, सामने वह छोटा-सा तालाब है जिसमें मैंने स्नान किया था, दोनों तरफ दो जामुन के पेड़ कैसे ऊँचे दिखाई दे रहे हैं।

तेजसिंह – ‘हम भी इस बाग की सैर कर लेते तो बेहतर था।’

कुमार - ‘चलो घूमो, मैं ख्याल करता हूँ कि उस कमरे का दरवाजा भी खुला होगा, जिसमें कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर देखी थी।’

चारों आदमी उस बाग में घूमने लगे।

कमरे के दरवाजे खुले हुए थे, जो-जो चीजें पहले कुमार ने देखी थीं, आज भी नजर पड़ीं। सफाई भी अच्छी थी, किसी जगह गर्द या कतवार का नामो-निशान न था।

पहली दफा जब कुमार इस बाग में आए थे तब इनकी दूसरी ही हालत थी, ताज्जुब में भरे हुए थे, तबीयत घबरा रही थी, कई बातों का सोच घेरे हुए था, इसलिए इस बाग की सैर पूरी तरह से नहीं कर सके थे, पर आज अपने ऐयारों के साथ हैं, किसी बात की फिक्र नहीं, बल्कि बहुत से अरमानों के पूरा होने की उम्मीद बँध रही है। खुशी-खुशी ऐयारों के साथ घूमने लगे। आज इस बाग की कोई कोठरी, कोई कमरा, कोई दरवाजा बंद नहीं है, सब जगहों को देखते, अपने ऐयारों को दिखाते और मौके-मौके पर यह भी कहते जाते हैं - ‘इस जगह हम बैठे थे, इस जगह भोजन किया था, इस जगह सो गए थे कि दूसरे बाग में पहुँचे।’

तेजसिंह ने कहा - ‘दोपहर को भोजन करके सो रहने के बाद आप जिस कमरे में पहुँचे थे, जरूर उस बाग का रास्ता भी कहीं इस बाग में से ही होगा, अच्छी तरह घूम के खोजना चाहिए।’

कुमार - ‘मैं भी यही सोचता हूँ।’

देवीसिंह - (कुमार से) ‘पहली दफा जब आप इस बाग में आए थे तो खूब खातिर की गई थी, नहा कर पहनने के कपड़े मिले, पूजा-पाठ का सामान दुरुस्त था, भोजन करने के लिए अच्छी-अच्छी चीजें मिली थीं पर आज तो कोई बात भी नहीं पूछता, यह क्या?’

कुमार - ‘यह तुम लोगों के कदमों की बरकत है।’

घूमते-घूमते एक दरवाजा इन लोगों को मिला जिसे खोल, ये लोग दूसरे बाग में पहुँचे। कुमार ने कहा - ‘बेशक यह वही बाग है, जिसमें दूसरी दफा मेरी आँख खुली थी या जहाँ कई औरतों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन ताज्जुब है कि आज किसी की भी सूरत दिखाई नहीं देती। वाह रे चित्रनगर, पहले तो कुछ और था आज कुछ और ही है। खैर, चलो इस बाग में चल कर देखें कि क्या कैफियत है, वह तस्वीर का दरबार और रौनक बाकी है या नहीं। रास्ता याद है और मैं इस बाग में बखूबी जा सकता हूँ।’ इतना कह कुमार आगे हुए और उनके पीछे-पीछे चारों ऐयार भी तीसरे बाग की तरफ बढ़े।

बयान - 7

विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकांता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती-जागती है और उसी की खोज में वीरेंद्रसिंह फिर खोह के अंदर गए हैं। इन सब बातों को सुन-सुन कर महाराज जयसिंह बराबर उदास रहा करते थे। महल में महारानी की भी बुरी दशा थी। चंद्रकांता की जुदाई में खाना-पीना बिल्कुल छूटा हुआ था, सूख के काँटा हो रही थीं और जितनी औरतें महल में थीं सभी उदास और दु:खी रहा करती थीं।

एक दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे थे। दीवान हरदयालसिंह जरूरी अर्जियाँ पढ़ कर सुनाते और हुक्म लेते जाते थे। इतने में एक जासूस हाथ में एक छोटा-सा लिखा हुआ कागज ले कर हाजिर हुआ।

इशारा पा कर चोबदार ने उसे पेश किया। दीवान हरदयालसिंह ने उससे पूछा - ‘यह कैसा कागज लाया है और क्या कहता है?’

जासूस ने अर्ज किया - ‘इस तरह के लिखे हुए कागज शहर में बहुत जगह चिपके हुए दिखाई दे रहे हैं। तिरमुहानियों पर, बाजार में, बड़ी-बड़ी सड़कों पर इसी तरह के कागज नजर पड़ते हैं। मैंने एक आदमी से पढ़वाया था जिसके सुनने से जी में डर पैदा हुआ और एक कागज उखाड़ कर दरबार में ले आया हूँ। बाजार में इन कागजों को पढ़-पढ़ कर लोग बहुत घबरा रहे हैं।’

जासूस के हाथ से कागज ले कर दीवान हरदयालसिंह ने पढ़ा और महाराज को सुनाया। यह लिखा हुआ था -

‘नौगढ़ और विजयगढ़ के राजा आजकल बड़े जोर में आए होंगे। दोनों को इस बात की बड़ी शेखी होगी कि हम चुनारगढ़ फतह करके निश्चित हो गए, अब हमारा कोई दुश्मन नहीं रहा। इसी तरह वीरेंद्रसिंह भी फूले न समाते होंगे। आजकल मजे में खोह की हवा खा रहे हैं। मगर यह किसी को मालूम नहीं कि उन लोगों का बड़ा भारी दुश्मन मैं अभी तक जीता हूँ। आज से मैं अपना काम शुरू करूँगा। नौगढ़ और विजयगढ़ के राजाओं-सरदारों और बड़े-बड़े सेठ साहूकारों को चुन-चुन कर मारूँगा। दोनों राज्य मिट्टी में मिला दूँगा और फिर भी गिरफ्तार न होऊँगा । यह न समझना कि हमारे यहाँ बड़े-बड़े ऐयार हैं, मैं ऐसे-ऐसे ऐयारों को कुछ भी नहीं समझता। मैं भी एक बड़ा भारी ऐयार हूँ लेकिन मैं किसी को गिरफ्तार न करूँगा, बस जान से मार डालना मेरा काम होगा। अब अपनी-अपनी जान की हिफाजत चाहो तो यहाँ से भागते जाओ। खबरदार! खबरदार!! खबरदार!!

- ऐयारों का गुरुघंटाल – जालिम खाँ’

इस कागज को सुन महाराज जयसिंह घबरा उठे। हरदयालसिंह के भी होश जाते रहे और दरबार में जितने आदमी थे सभी काँप उठे। मगर सभी को ढाँढ़स देने के लिए महाराज ने गंभीर भाव से कहा - ‘हम ऐसे-ऐसे लुच्चों के डराने से नहीं डरते। कोई घबराने की जरूरत नहीं। अभी शहर में मुनादी करा दी जाए कि जालिम खाँ को गिरफ्तार करने की फिक्र सरकार कर रही है। यह किसी का कुछ न बिगाड़ सकेगा। कोई आदमी घबरा कर या डर कर अपना मकान न छोड़े। मुनादी के बाद शहर में पहरे का इंतजाम पूरा-पूरा किया जाए और बहुत से जासूस उस शैतान की टोह में रवाना किए जाएँ।’

थोड़ी देर बाद महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह भी सलाम करके घर जाना चाहते थे, मगर महाराज का इशारा पा कर रुक गए।

दीवान को साथ ले महाराज जयसिंह दीवानखाने में गए और एकांत में बैठ कर उसी जालिम खाँ के बारे में सोचने लगे। कुछ देर तक सोच-विचार कर हरदयालसिंह ने कहा - ‘हमारे यहाँ कोई ऐयार नहीं है जिसका होना बहुत जरूरी है।’

महाराज जयसिंह ने कहा - ‘तुम इसी वक्त एक खत यहाँ के हालचाल का राजा सुरेंद्रसिंह को लिखो और वह विज्ञापन (इश्तिहार) भी उसी के साथ भेज दो, जो जासूस लाया था।’

महाराज के हुक्म के मुताबिक हरदयालसिंह ने खत लिख कर तैयार किया और एक जासूस को दे कर उसे पोशीदा तौर पर नौगढ़ की तरफ रवाना किया, इसके बाद महाराज ने महल के चारों तरफ पहरा बढ़ाने के लिए हुक्म दे कर दीवान को विदा किया।

इन सब कामों से छुट्टी पा महाराज महल में गए। रानी से भी यह हाल कहा। वह भी सुन कर बहुत घबराई। औरतों में इस बात की खलबली पड़ गई। आज का दिन और रात इस आश्चर्य में गुजर गई।

दूसरे दिन दरबार में फिर एक जासूस ने कल की तरह एक और कागज ला कर पेश किया और कहा - ‘आज तमाम शहर में इसी तरह के कागज चिपके दिखाई देते हैं।’ दीवान हरदयालसिंह ने जासूस के हाथ से वह कागज ले लिया और पढ़ कर महाराज को सुनाया, यह लिखा था -

‘वाह वाह वाह। आपके किए कुछ न बन पड़ा तो नौगढ़ से मदद माँगने लगे। यह नहीं जानते कि नौगढ़ में भी मैंने उपद्रव मचा रखा है। क्या आपका जासूस मुझसे छिप कर कहीं जा सकता था? मैंने उसे खतम कर दिया। किसी को भेजिए उसकी लाश उठा लावे। शहर के बाहर कोस भर पर उसकी लाश मिलेगी।

- वही - जालिम खाँ’

इस इश्तिहार के सुनने से महाराज का कलेजा काँप उठा। दरबार में जितने आदमी बैठे थे सभी के छक्के छूट गए। अपनी-अपनी फिक्र पड़ गई। महाराज के हुक्म से कई आदमी शहर के बाहर उस जासूस की लाश उठा लाने के लिए भेजे गए, जब तक उसकी लाश दरबार के बाहर लाई जाए एक धूम-सी मच गई। हजारों आदमियों की भीड़ लग गई। सभी की जुबान पर जालिम खाँ सवार था। नाम से लोगों के रोंए खड़े होते थे। जासूस के सिर का पता न था और जो खत वह ले गया था वह उसके बाजू से बँधी हुई थी।

जाहिर है महाराज ने सभी को ढाँढ़स दिया मगर तबीयत में अपनी जान का भी खौफ मालूम हुआ। दीवान से कहा - ‘शहर में मुनादी करा दी जाए कि जो कोई इस जालिम खाँ को गिरफ्तार करेगा उसे सरकार से दस हजार रुपया मिलेगा और यहाँ के कुल हालचाल का खत पाँच सवारों के साथ नौगढ़ रवाना किया जाए।’

यह हुक्म दे कर महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। पाँचों सवार जो खत ले कर नौगढ़ रवाना हुए, डर के मारे काँप रहे थे। अपनी जान का डर था। आपस में इरादा कर लिया कि शहर के बाहर होते ही बेतहाशा घोड़े फेंके निकल जाएँगे, मगर न हो सका।

दूसरे दिन सवेरे ही फिर इश्तिहार लिए हुए एक पहरे वाला दरबार में हाजिर हुआ। हरदयालसिंह ने इश्तिहार ले कर देखा, यह लिखा था -

‘इन पाँच सवारों की क्या मजाल थी जो मेरे हाथ से बच कर निकल जाते। आज तो इन्हीं पर गुजरी, कल से तुम्हारे महल में खेल मचाऊँगा। लो अब खूब सँभल कर रहना। तुमने यह मुनादी कराई है कि जालिम खाँ को गिरफ्तार करने वाला दस हजार इनाम पाएगा। मैं भी कहे देता हूँ कि जो कोई मुझे गिरफ्तार करेगा उसे बीस हजार इनाम दूँगा।।

- वही जालिम खाँ।।’

आज का इश्तिहार पढ़ने से लोगों की क्या स्थिति हुई वे ही जानते होंगे। महाराज के तो होश उड़ गए। उनको अब उम्मीद न रही कि हमारी खबर नौगढ़ पहुँचेगी। एक खत के साथ पूरी पलटन को भेजना यह भी जवाँमर्दी से दूर था। सिवाय इसके दरबार में जासूसों ने यह खबर सुनाई कि जालिम खाँ के खौफ से शहर काँप रहा है, ताज्जुब नहीं कि दो या तीन दिन में तमाम रियाया शहर खाली कर दे। यह सुन कर और भी तबीयत घबरा उठी।

महाराज ने कई आदमी उन सवारों की लाशों को लाने के लिए रवाना किए। वहाँ जाते उन लोगों की जान काँपती थी मगर हाकिम का हुक्म था, क्या करते लाचार जाना पड़ता था।

पाँचों आदमियों की लाशें लाई गईं। उन सभी के सिर कटे हुए न थे, मालूम होता था फाँसी लगा कर जान ली गई है, क्योंकि गरदन में रस्से के दाग थे।

इस कैफियत को देख कर महाराज हैरान हो चुपचाप बैठे थे। कुछ अक्ल काम नहीं करती थी। इतने में सामने से पंडित बद्रीनाथ आते दिखाई दिए।

आज पंडित बद्रीनाथ का ठाठ देखने लायक था। पोर-पोर से फुर्तीलापन झलक रहा था। ऐयारी के पूरे ठाठ से सजे थे, बल्कि उससे फाजिल तीर-कमान लगाए, चुस्त जांघिया कसे, बटुआ और खंजर कमर से, कमंद पीठ पर लगाए पत्थरों की झोली गले में लटकती हुई, छोटा-सा डंडा हाथ में लिए कचहरी में आ मौजूद हुए।

महाराज को यह खबर पहले ही लग चुकी थी कि राजा शिवदत्त अपनी रानी को ले कर तपस्या करने के लिए जंगल की तरफ चले गए और पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह सब ऐयार राजा सुरेंद्रसिंह के साथ हो गए हैं।

ऐसे वक्त में पंडित बद्रीनाथ का पहुँचना महाराज के वास्ते ऐसा हुआ जैसे मरे हुए पर अमृत बरसना। देखते ही खुश हो गए, प्रणाम करके बैठने का इशारा किया। बद्रीनाथ आशीर्वाद दे कर बैठ गए।

जयसिंह – ‘आज आप बड़े मौके पर पहुँचे।’

बद्रीनाथ - ‘जी हाँ, अब आप कोई चिंता न करें। दो-एक दिन में ही जालिम खाँ को गिरफ्तार कर लूँगा।’

जयसिंह – ‘आपको जालिम खाँ की खबर कैसे लगी।’

बद्रीनाथ - ‘इसकी खबर तो नौगढ़ ही में लग गई थी, जिसका खुलासा हाल दूसरे वक्त कहूँगा। यहाँ पहुँचने पर शहर वालों को मैंने बहुत उदास और डर के मारे काँपते देखा। रास्ते में जो भी मुझको मिलता था, उसे बराबर ढाँढ़स देता था कि घबराओ मत अब मैं आ पहुँचा हूँ।, बाकी हाल एकांत में कहूँगा और जो कुछ काम करना होगा, उसकी राय भी दूसरे वक्त एकांत में ही आपके और दीवान हरदयालसिंह के सामने पक्की होगी, क्योंकि अभी तक मैंने स्नान-पूजा कुछ भी नहीं किया है। इससे छुट्टी पा कर तब कोई काम करूँगा।’

अब महाराज जयसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी दिखाई देने लगी। दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया - ‘पंडित बद्रीनाथ को आप अपने मकान में उतारिए और इनके आराम की कुल चीजों का बंदोबस्त कर दीजिए जिससे किसी बात की तकलीफ न हो, मैं भी अब उठता हूँ।’

बद्रीनाथ - ‘शाम को महाराज के दर्शन कहाँ होंगे? क्योंकि उसी वक्त मेरी बातचीत होगी?’

जयसिंह –‘जिस वक्त चाहो मुझसे मुलाकात कर सकते हो।’

महाराज जयसिंह ने दरबार बर्खास्त किया, पंडित बद्रीनाथ को साथ ले दीवान हरदयालसिंह अपने मकान पर आए और उनकी जरूरत की चीजों का पूरा-पूरा इंतजाम कर दिया।

जो कुछ दिन बाकी था पंडित बद्रीनाथ ने जालिम खाँ के गिरफ्तार करने की तरकीब सोचने में गुजारा। शाम के वक्त दीवान हरदयालसिंह को साथ ले महाराज जयसिंह से मिलने गए, मालूम हुआ कि महाराज बाग की सैर कर रहे हैं, वे दोनों बाग में गए।

उस वक्त वहाँ महाराज के पास बहुत से आदमी थे, पंडित बद्रीनाथ के आते ही वे लोग विदा कर दिए गए, सिर्फ बद्रीनाथ और हरदयालसिंह महाराज के पास रह गए।

पहले कुछ देर तक चुनारगढ़ के राजा शिवदत्तसिंह के बारे में बातचीत होती रही, इसके बाद महाराज ने पूछा – ‘नौगढ़ में जालिम खाँ की खबर कैसे पहुँची?’

बद्रीनाथ - ‘नौगढ़ में भी इसी तरह के इश्तिहार चिपकाए हैं, जिनके पढ़ने से मालूम हुआ कि विजयगढ़ में वह उपद्रव मचाएगा, इसलिए हमारे महाराज ने मुझे यहाँ भेजा है।’

महाराज – ‘इस दुष्ट जालिम खाँ ने वहाँ तो किसी की जान न ली?’

बद्रीनाथ - ‘नहीं, वहाँ अभी उसका दाँव नहीं लगा, ऐयार लोग भी बड़ी मुस्तैदी से उसकी गिरफ्तारी की फिक्र में लगे हुए हैं।

महाराज – ‘यहाँ तो उसने कई खून किए।’

बद्रीनाथ - ‘शहर में आते ही मुझे खबर लग चुकी है, खैर, देखा जाएगा।’

महाराज – ‘अगर ज्योतिषी जी को भी साथ लाते तो उनके रमल की मदद से बहुत जल्द गिरफ्तार हो जाता।’

बद्रीनाथ - ‘महाराज, जरा इसकी बहादुरी की तरफ ख्याल कीजिए कि इश्तिहार दे कर डंके की चोट काम कर रहा है। ऐसे शख्स की गिरफ्तारी भी उसी तरह होनी चाहिए। ज्योतिषी जी की मदद की इसमें क्या जरूरत है।’

महाराज – ‘देखें वह कैसे गिरफ्तार होता है, शहर भर उसके खौफ से काँप रहा है।’

बद्रीनाथ - ‘घबराइए नहीं, सुबह-शाम में किसी न किसी को गिरफ्तार करता हूँ।’

महाराज – ‘क्या वे लोग कई आदमी हैं?’

बद्रीनाथ - ‘जरूर कई आदमी होंगे। यह अकेले का काम नहीं है कि यहाँ से नौगढ़ तक की खबर रखे और दोनों तरफ नुकसान पहुँचाने की नीयत करे।’

महाराज – ‘अच्छा जो चाहो करो, तुम्हारे आ जाने से बहुत कुछ ढाँढ़स हो गई नहीं तो बड़ी ही फिक्र लगी हुई थी।’

बद्रीनाथ - ‘अब मैं रुखसत होऊँगा। बहुत कुछ काम करना है।’

हरदयालसिंह – ‘क्या आप डेरे की तरफ नहीं जाएँगे?’

बद्रीनाथ - ‘कोई जरूरत नहीं, मैं पूरे बंदोबस्त से आया हूँ और जिधर जी चाहेगा चल दूँगा।’

कुछ रात जा चुकी थी, जब महाराज से विदा हो बद्रीनाथ, जालिम खाँ की टोह में रवाना हुए।

बयान - 8

बद्रीनाथ, जालिम खाँ की फिक्र में रवाना हुए। वह क्या करेंगे, कैसे जालिम खाँ को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। जालिम खाँ ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धमकाया था कि अब तुम्हारे महल में डाका मरूँगा।

महाराज पर इश्तिहार का बहुत कुछ असर हुआ। पहरे पर आदमी चौगुने कर दिए गए। आप भी रात-भर जागने लगे, हरदम तलवार का कब्जा हाथ में रहता था। बद्रीनाथ के आने से कुछ तसल्ली हो गई थी, मगर जिस रोज वह जालिम खाँ को गिरफ्तार करने चले गए उसके दूसरे ही दिन फिर इश्तिहार शहर में हर चौमुहानियों और सड़कों पर चिपका हुआ लोगों की नजर पड़ा, जिसमें का एक कागज जासूस ने ला कर दरबार में महाराज के सामने पेश किया और दीवान हरदयालसिंह ने पढ़ कर सुनाया। यह लिखा हुआ था -

‘महाराज जयसिंह,

होशियार रहना, पंडित बद्रीनाथ की ऐयारी के भरोसे मत भूलना, वह कल का छोकरा क्या कर सकता है? पहले तो जालिम खाँ तुम्हारा दुश्मन था, अब मैं भी पहुँच गया हूँ। पंद्रह दिन के अंदर इस शहर को उजाड़ कर दूँगा और आज के चौथे दिन बद्रीनाथ का सिर ले कर बारह बजे रात को तुम्हारे महल में पहुँचूँगा। होशियार। उस वक्त भी जिसका जी चाहे मुझे गिरफ्तार कर ले। देखूँ तो माई का लाल कौन निकलता है? जो कोई महाराज का दुश्मन हो और मुझसे मिलना चाहे वह ‘टेटी-चोटी’ में बारह बजे रात को मिल सकता है।

- आफत खाँ खूनी’

इस इश्तिहार ने तो महाराज के बचे-बचाए होश भी उड़ा दिए। बस यही जी में आता था कि इसी वक्त विजयगढ़ छोड़ के भाग जाएँ, मगर जवाँमर्दी और हिम्मत ऐसा करने से रोकती थी।

जल्दी से दरबार बर्खास्त किया, दीवान हरदयालसिंह को साथ ले दीवानखाने में चले गए और इस नए आफत खाँ खूनी के बारे में बातचीत करने लगे।

महाराज – ‘अब क्या किया जाए? एक ने तो आफत मचा ही रखी थी अब दूसरे इस आफत खाँ ने आ कर और भी जान सुखा दी। अगर ये दोनों गिरफ्तार न हुए तो हमारे राज्य करने पर लानत है।’

हरदयालसिंह – ‘बद्रीनाथ के आने से कुछ उम्मीद हो गई थी कि जालिम खाँ को गिरफ्तार करेंगे, मगर अब तो उनकी जान भी बचती नजर नहीं आती।’

महाराज – ‘किसी तरकीब से आज की यह खबर नौगढ़ पहुँचती तो बेहतर होता। वहाँ से बद्रीनाथ की मदद के लिए कोई और ऐयार आ जाता।’

हरदयालसिंह – ‘नौगढ़ जिस आदमी को भेजेंगे उसी की जान जाएगी, हाँ सौ दो सौ आदमियों के पहरे में कोई खत जाए तो शायद पहुँचे।’

महाराज - (गुस्से में आ कर) ‘नाम को हमारे यहाँ पचासों जासूस हैं, बरसों से हरामखोरों की तरह बैठे खा रहे हैं मगर आज एक काम उनके किए नहीं हो सकता। न कोई जालिम खाँ की खबर लाता है न कोई नौगढ़ खत पहुँचाने लायक है।’

हरदयालसिंह – ‘एक ही जासूस के मरने से सभी के छक्के छूट गए।’

महाराज – ‘खैर, आज शाम को हमारे कुल जासूसों को ले कर बाग में आओ, या तो कुछ काम ही निकालेंगे या सारे जासूस तोप के सामने रख कर उड़ा दिए जाएँगे, फिर जो कुछ होगा देखा जाएगा। मैं खुद उस हरामजादे को पकड़ूँगा।’

हरदयालसिंह – ‘जो हुक्म।’

महाराज – ‘बस अब जाओ, जो हमने कहा है उसकी फिक्र करो।’

दीवान हरदयालसिंह महाराज से विदा हो अपने मकान पर गए, मगर हैरान थे कि क्या करें, क्योंकि महाराज को बेतरह क्रोध चढ़ आया था। उम्मीद तो यही थी कि किसी जासूस के किए कुछ न होगा और वे बेचारे मुफ्त में तोप के आगे उड़ा दिए जाएँगे। फिर वे यह भी सोचते थे कि जब महाराज खुद उन दुष्टों की गिरफ्तारी की फिक्र में घर से निकलेंगे तो मेरी जान भी गई, अब जिंदगी की क्या उम्मीद है।’

बयान - 9

कुँवर वीरेंद्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए, जिसमें राजकुमारी चंद्रकांता की दरबारी तस्वीर देखी थी और जहाँ कई औरतें कैदियों की तरह इनको गिरफ्तार करके ले गई थीं।

उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। जब कुमार उस दरवाजे के पास पहुँचे जिसमें से हो कर ये लोग उस बाग में पहुँचते तो वहाँ एक कमसिन औरत नजर पड़ी, जो इन्हीं की तरफ आ रही थी। देखने में खूबसूरत और पोशाक भी उसकी बेशकीमती थी, हाथ में एक खत लिए कुमार के पास आ कर खड़ी हो गई, खत कुमार के हाथ में दे दिया। उन्होंने ताज्जुब में आ कर खुद उसे पढ़ा, लिखा हुआ था -

‘कई दिनों से आप हमारे इलाके में आए हुए हैं, इसलिए आपकी मेहमानदारी हमको लाजिम है। आज सब सामान दुरुस्त किया है। इसी लौंडी के साथ आइए और झोंपड़ी को पवित्र कीजिए। इसका अहसान जन्म भर न भूलूँगा।

- सिद्धनाथ योगी।’

कुमार ने खत तेजसिंह के हाथ में दे दिया, उन्होंने पढ़ कर कहा - ‘साधु हैं, योगी हैं, इसी से इस खत में कुछ हुकूमत भी झलकती है।’ देवीसिंह और ज्योतिषी जी ने भी खत को पढ़ा।

शाम हो चुकी थी, कुमार ने अभी उस खत का कुछ जवाब नहीं दिया था कि तेजसिंह ने उस औरत से कहा - ‘हम लोगों को महात्मा जी की खातिर मंजूर है, मगर अभी तुम्हारे साथ नहीं जा सकते, घड़ी भर के बाद चलेंगे, क्योंकि संध्या करने का समय हो चुका है।’

औरत – ‘तब तक मैं ठहरती हूँ, आप लोग संध्या कर लीजिए, अगर हुक्म हो तो संध्या के समय के लिए जल और आसन ले आऊँ?’

देवीसिंह – ‘नहीं कोई जरूरत नहीं।’

औरत – ‘तो फिर यहाँ संध्या कैसे कीजिएगा? इस बाग में कोई नहर नहीं, बावड़ी नहीं।’

तेजसिंह – ‘उस दूसरे बाग में बावड़ी है।’

औरत – ‘इतनी तकलीफ करने की क्या जरूरत है, मैं अभी सब सामान लिए आती हूँ, या फिर मेरे साथ चलिए, उस बाग में संध्या कर लीजिएगा, अभी तो उसका समय भी नहीं बीत चला है।’

तेजसिंह – ‘नहीं, हम लोग इसी बाग में संध्या करेंगे, अच्छा जल ले आओ।’

इतना सुनते ही वह औरत लपकती हुई तीसरे बाग में चली गई।

कुमार - ‘इस खत को भेजने वाले अगर वे ही योगी हैं, जिन्होंने मुझे कूदने से बचाया था तो बड़ी खुशी की बात है, जरूर वहाँ वनकन्या से भी मुलाकात होगी। मगर तुम रुक क्यों गए, उसी बाग में चल कर संध्या कर लेते। मैं तो उसी वक्त कहने को था मगर यह समझ कर चुप हो रहा कि शायद इसमें भी तुम्हारा कोई मतलब हो।’

तेजसिंह – ‘जरूर ऐसा ही है।’

देवीसिंह – ‘क्यों उस्ताद, इसमें क्या मतलब है?’

तेजसिंह – ‘देखो मालूम ही हुआ जाता है।’

कुमार - ‘तो कहते क्यों नहीं, आखिर कब बतलाओगे?’

तेजसिंह – ‘हमने यह सोचा कि कहीं योगी जी हम लोगों से धोखा न करें कि खाने-पीने में बेहोशी की दवा मिला कर खिला दें, जब हम लोग बेहोश हो जाएँ तो उठवा कर खोह के बाहर रखवा दें और यहाँ आने का रास्ता बंद करवा दें, ऐसा होगा तो कुल मेहनत ही बरबाद हो जाएगी। देखिए आप भी इसी बाग में बेहोश किए गए थे, जब कैदी बना कर लाए थे और प्यास लगने पर एक कटोरा पानी पीया था, उसी वक्त बेहोश हो गए और खोह में ले जा कर रख दिए गए थे। अगर ऐसा न हुआ होता तो उसी समय कुछ-न-कुछ हाल यहाँ का मिल गया होता। फिर मैं यह भी सोचता हूँ कि अगर हम लोग वहाँ जा कर भोजन से इनकार करेंगे तो ठीक न होगा क्योंकि दावत कबूल करके मौके पर खाने से इनकार कर जाना उचित नहीं है।’

देवीसिंह – ‘तो फिर इसकी तरकीब क्या सोची है?’

तेजसिंह - (हँस कर) ‘तरकीब क्या, बस वही तिलिस्मी गुलाब का फूल घिस कर सभी को पिलाऊँगा और आप भी पीऊँगा, फिर सात दिन तक बेहोश करने वाला कौन है?’

कुमार - ‘हाँ ठीक है, पर वह वैद्य भी कैसा चतुर होगा जिसने दवाइयों से ऐसे काम के नायाब फूल बनाए।’

तेजसिंह – ‘ठीक ही है।’

इतने में वही औरत सामने से आती दिखाई पड़ी, उसके पीछे तीन लौंडियाँ आसन, पँचपात्र, जल इत्यादि हाथों में लिए आ रही थीं।

उस बाग में एक पेड़ के नीचे कई पत्थर बैठने लायक रखे हुए थे, औरतों ने उन पत्थरो पर सामान दुरुस्त कर दिया, इसके बाद तेजसिंह ने उन लोगों से कहा - ‘अब थोड़ी देर के वास्ते तुम लोग अपने बाग में चली जाओ क्योंकि औरतों के सामने हम लोग संध्या नहीं करते।’

‘आप ही लोगों की खिदमत करते जनम बीत गया, ऐसी बातें क्यों करते हैं। सीधी तरह से क्यों नहीं कहते कि हट जाओ। लो मैं जाती हूँ।’ कहती हुई वह औरत लौंडियों को साथ ले चली गई। उसकी बात पर ये लोग हँस पड़े और बोले - ‘जरूर ऐयारों के संग रहने वाली है।’

संध्या करने के बाद तेजसिंह ने तिलिस्मी गुलाब का फूल पानी में घिस कर सभी को पिलाया तथा आप भी पीया और तब राह देखने लगे कि फिर वह औरत आए तो उसके साथ हम लोग चलें।

थोड़ी देर के बाद वही औरत फिर आई, उसने इन लोगों को चलने के लिए कहा। ये लोग भी तैयार थे, उठ खड़े हुए और उसके पीछे रवाना हो कर तीसरे बाग में पहुँचे। ऐयारों ने अभी तक इस बाग को नहीं देखा था मगर कुँवर वीरेंद्रसिंह इसे खूब पहचानते थे। इसी बाग में कैदियों की तरह लाए गए थे और यहीं पर कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार देखा था मगर आज इस बाग को वैसा नहीं पाया, न तो वह रोशनी ही थी न उतने आदमी ही। हाँ, पाँच-सात औरतें इधर-उधर घूमती-फिरती दिखाई पड़ीं और दो-तीन पेड़ों के नीचे कुछ रोशनी भी थी जहाँ उसका होना जरूरी था।

शाम हो गई थी बल्कि कुछ अँधेरा भी हो चुका था। वह औरत इन लोगों को लिए उस कमरे की तरफ चली जहाँ कुमार ने तस्वीर का दरबार देखा था। रास्ते में कुमार सोचते जाते थे - ‘चाहे जो हो आज सब भेद मालूम किए बिना योगी का पिंड न छोङूँगा। हाल मालूम हो जाएगा कि वनकन्या कौन है, तिलिस्मी किताब उसने क्यो कर पाई थी, हमारे साथ उसने इतनी भलाई क्यों की और चंद्रकांता कहाँ चली गई?’

दीवानखाने में पहुँचे। आज यहाँ तस्वीर का दरबार न था बल्कि उन्हीं योगी जी का दरबार था, जिन्होंने पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को बचाया था। लंबा-चौड़ा फर्श बिछा हुआ था और उसके ऊपर एक मृगछाला बिछाए योगी जी बैठे हुए थे, बाईं तरफ कुछ पीछे हट कर वनकन्या बैठी थी और सामने की तरफ चार-पाँच लौंडियाँ हाथ जोड़े खड़ी थीं।

कुमार को आते देख योगी जी उठ खड़े हुए, दरवाजे तक आ कर उनका हाथ पकड़ अपनी गद्दी के पास ले गए और अपने बगल में दाहिने ओर मृगछाला पर बैठाया। वनकन्या उठ कर कुछ दूर जा खड़ी हुई और प्रेम-भरी निगाहों से कुमार को देखने लगी।

सब तरफ से हट कर कुमार की निगाह भी वनकन्या की तरफ जा डटी। इस वक्त इन दोनों की निगाहों से मुहब्बत, हमदर्दी और शर्म टपक रही थी। चारों आँखें आपस में घुल रही थीं। अगर योगी जी का ख्याल न होता तो दोनों दिल खोल कर मिल लेते, मगर नहीं, दोनों ही को इस बात का ख्याल था कि इन प्रेम की निगाहों को योगी जी न जानने पाएँ। कुछ ठहर कर योगी और कुमार में बातचीत होने लगी।

योगी – ‘आप और आपकी मंडली के लोग कुशल-मंगल से तो हैं?’

कुमार - ‘आपकी दया से हर तरह से प्रसन्न हैं, परंतु...।

योगी – ‘परंतु क्या?’

कुमार - ‘परंतु कई बातों का भेद न खुलने से तबीयत को चैन नहीं है, फिर भी आशा है कि आपकी कृपा से हम लोगों का यह दुख भी दूर हो जाएगा।’

योगी – ‘परमेश्वर की दया से अब कोई चिंता न रहेगी और आपके सब संदेह छूट जाएँगे। इस समय आप लोग हमारे साग-सत्तू को कबूल करें, इसके बाद रात-भर हमारे आपके बीच बातचीत होती रहेगी, जो कुछ पूछना हो पूछिएगा, ईश्वर चाहेंगे तो अब किसी तरह का दु:ख उठाना न पड़ेगा और आज ही से आपकी खुशी का दिन शुरू होगा।’

योगी की अमृत भरी बातों ने कुमार और उनके ऐयारों के सूखे दिलों को हरा कर दिया। तबीयत प्रसन्न हो गई, उम्मीद बँध गई कि अब सब काम पूरा हो जाएगा। थोड़ी देर के बाद भोजन का सामान दुरुस्त किया गया। खाने की जितनी चीजें थीं सभी ऐसी थीं कि सिवाय राजा-महाराजाओं के और किसी के यहाँ न पाई जाएँ। खाने-पीने से निश्चित होने पर बाग के बीचो बीच पत्थर के खूबसूरत चबूतरे पर फर्श बिछाया गया और उसके ऊपर मृगछाला बिछा कर योगी जी बैठ गए, अपने बगल में कुमार को बैठा लिया, कुछ दूर पर हट कर वनकन्या अपनी दो सखियों के साथ बैठी, और जितनी औरतें थीं, हटा दी गईं।

रात पहर-भर से ज्यादा जा चुकी थी, चंद्रमा अपनी पूर्ण किरणों से उदय हो रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी जिसमें सुगंधित फूलों की मीठी महक उड़ रही थी।

योगी ने मुस्करा कर कुमार से कहा - ‘अब जो कुछ पूछना हो पूछिए, मैं सब बातों का जवाब दूँगा और जो कुछ काम आपका अभी तक अटका है उसको भी कर दूँगा।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह के जी में बहुत-सी ताज्जुब की बातें भरी हुई थीं, हैरान थे कि पहले क्या पूछूँ। आखिर खूब सँभल कर बैठे और योगी से पूछने लगे।

बयान - 10

जो कुछ दिन बाकी था, दीवान हरदयालसिंह ने जासूसों को इकट्ठा करने और समझाने-बुझाने में बिताया। शाम को सब जासूसों को साथ ले हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह के पास बाग में हाजिर हुए।

खुद महाराज जयसिंह ने जासूसों से पूछा - ‘तुम लोग जालिम खाँ का पता क्यो नहीं लगा सकते?’

इसके जवाब में उन्होंने अर्ज किया - ‘महाराज, हम लोगों से जहाँ तक बनता है कोशिश करते हैं, उम्मीद है कि पता लग जाएगा।’

महाराज ने कहा - ‘आफत खाँ एक नया शैतान पैदा हुआ? इसने अपने इश्तिहार में अपने मिलने का पता भी लिखा है, फिर क्यों नहीं तुम लोग उसी ठिकाने मिल कर उसे गिरफ्तार करते हो?’

जासूसों ने जवाब दिया - ‘महाराज आफत खाँ ने अपने मिलने का ठिकाना ‘टेटी-चोटी’ लिखा है, अब हम लोग क्या जानें ‘टेटी-चोटी’ कहाँ है, कौन-सा मुहल्ला है, किस जगह को उसने इस नाम से लिखा है, इसका क्या अर्थ है तथा हम लोग कहाँ जाएँ?’

यह सुन कर महाराज भी ‘टेटी-चोटी’ के फेर में पड़ गए। कुछ भी समझ में न आया। जासूसों को बेकसूर समझ कुछ न कहा, हाँ डरा-धमका कर और ताकीद करके रवाना किया।

अब महाराज को अपने जीने की उम्मीद कम रह गई, खौफ के मारे रात-भर हाथ में तलवार लिए जागा करते, क्योंकि थोड़ा-बहुत जो कुछ भरोसा था अपनी बहादुरी ही का था।

दूसरे दिन इश्तिहार फिर शहर में चिपका हुआ पाया गया जिसे पहरे वालों ने ला कर हाजिर किया। दीवान हरदयालसिंह ने उसे पढ़ कर सुनाया, यह लिखा था -

‘देखना, खूब सँभल कर रहना। बद्रीनाथ को गिरफ्तार कर चुका हूँ, अपने पहले वादे के बमूजिब कल बारह बजे रात को उसका सिर ले कर तुम्हारे महल में हम लोग कई आदमी पहुँचेंगे। देखें कैसे गिरफ्तार करते हो।।

- आफत खाँ’

बयान - 11

विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी आपस में धीरे-धीरे बातचीत कर रहे हैं। चाँदनी खूब छिटकी हुई है जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमियों में से जो दूसरे पत्थर पर बैठा हुए हैं उसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। काला रंग, लंबा कद, काली दाढ़ी, सिर्फ जांघिया और चुस्त कुरता पहने हुए, तीर-कमान और ढाल-तलवार आगे रखे एक घुटना जमीन के साथ लगाए बैठा है। बड़ी-बड़ी काली और कड़ी मूछें ऊपर को चढ़ी हुई हैं, भूरी और खूँखार आँखें चमक रही हैं, चेहरे से बदमाशी और लुटेरापन झलक रहा है। इसका नाम जालिम खाँ है।

दूसरा शख्स जो उसी के सामने वीरासन में बैठा है उसका नाम आफत खाँ है, मेखना कद, लंबी दाढ़ी, चुस्त पायजामा और कुरता पहने, गंडासा सामने और एक छोटी-सी गठरी बाईं तरफ रखे जालिम खाँ की बात खूब गौर से सुनता और जवाब देता है।

जालिम खाँ – ‘तुम्हारे मिल जाने से बड़ा सहारा हो गया।’

आफत खाँ – ‘इसी तरह मुझको तुम्हारे मिलने से। देखो यह गंडासा, (हाथ में ले कर) इसी से हजारों आदमियों की जानें जाएँगी। मैं सिवाय इसके कोई दूसरा हरबा नहीं रखता। यह जहर से बुझाया हुआ है, जिसे जरा भी इसका जख्म लग जाए फिर उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं।’

जालिम – ‘बहुत हैरान होने पर तुमसे मुलाकात हुई।’

आफत – ‘मुझे तुमसे जरूर मिलना था, इसलिए इश्तिहार चिपका दिए क्योंकि तुम लोगों का कोई ठिकाना तो था नहीं, जहाँ खोजता, लेकिन मुझे यकीन था कि तुम ऐयारी जरूर जानते होगे, इसीलिए ऐयारी बोली में अपना ठिकाना लिख दिया जिससे किसी दूसरे की समझ में न आए कि कहाँ बुलाया है।’

जालिम – ‘ऐसी ही कुछ थोड़ी-सी ऐयारी सीखी थी, मगर तुम इस फन में उस्ताद मालूम होते हो, तभी तो बद्रीनाथ को झट गिरफ्तार कर लिया।’

आफत – ‘उस्ताद तो मैं कुछ नहीं, मगर हाँ बद्रीनाथ जैसे छोकरे के लिए बहुत हूँ।’

जालिम – ‘जो चाहो कहो मगर मैंने तुमको अपना उस्ताद मान लिया, जरा बद्रीनाथ की सूरत तो दिखा दो।’

आफत – ‘हाँ-हाँ देखो, धड़ तो उसका गाड़ दिया मगर सिर गठरी में बँधा है, लेकिन हाथ मत लगाना क्योंकि इसको मसाले से तर किया है जिससे कल तक सड़ न जाए।’

इतना कह आफत खाँ ने अपनी बगल वाली गठरी खोली जिसमें बद्रीनाथ का सिर बँधा हुआ था। कपड़ा खून से तर हो रहा था। जितने आदमी उसके साथियों में से उस जगह थे, बद्रीनाथ की खोपड़ी देख खुशी के मारे उछलने लगे।

जालिम – ‘यह शख्स बड़ा शैतान था।’

आफत – ‘लेकिन मुझसे बच के कहाँ जाता।’

जालिम – ‘मगर उस्ताद, तुम एक बात बड़ी बेढ़ब कहते हो कि कल बारह बजे रात को महल में चलना होगा।’

आफत – ‘बेढ़ब क्या है, देखो कैसा तमाशा होता है?’

जालिम – ‘मगर उस्ताद, तुम्हारे इश्तिहार दे देने से उस वक्त वहाँ बहुत से आदमी इकट्ठे होंगे, कहीं ऐसा न हो कि हम लोग गिरफ्तार हो जाएँ?’

आफत – ‘ऐसा कौन है जो हम लोगों को गिरफ्तार करे?’

जालिम – ‘तो इसमें क्या फायदा है कि अपनी जान जोखिम में डाली जाए। वक्त टाल के क्यों नहीं चलते?’

आफत – ‘तुम तो गधे हो, कुछ खबर भी है कि हमने ऐसा क्यों किया?’

जालिम – ‘अब यह तो तुम जानो।’

आफत – ‘सुनो मैं बताता हूँ। मेरी नीयत यह है कि जहाँ तक हो सके जल्दी से उन लोगों को मार-पीट सब मामला खतम कर दूँ। उस वक्त वहाँ जितने आदमी मौजूद होंगे सभी को बस तुम मुर्दा ही समझ लो, बिना हाथ-पैर हिलाए सभी का काम तमाम करूँ तो सही।’

जालिम – ‘भला उस्ताद, यह कैसे हो सकता है?’

आफत - (बटुए में से एक गोला निकाल कर और दिखा कर) ‘देखो, इस किस्म के बहुत से गोले मैंने बना रखे हैं जो एक-एक तुम लोगों के हाथ में दे दूँगा। बस वहाँ पहुँचते ही तुम लोग इन गोलों को उन लोगों के हजूम (भीड़) में फेंक देना जो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए मौजूद होंगे। गिरते ही ये गोले भारी आवाज दे कर फूट जाएँगे और इनमें से बहुत-सा धुआँ निकलेगा जिसमें वे लोग छिप जाएँगे, आँखों में धुआँ लगते ही अंधे हो जाएँगे और नाक के अंदर जहाँ गया कि उन लोगों की जान गई, ऐसा जहरीला यह धुआँ होगा।

आफत खाँ की बात सुन कर सब-के-सब मारे खुशी के उछल पड़े।

जालिम खाँ ने कहा - ‘भला उस्ताद, एक गोला यहाँ पटक के दिखाओ, हम लोग भी देख लें तो दिल मजबूत हो जाएगा।’

‘हाँ देखो।’ यह कह के आफत खाँ ने वह गोला जमीन पर पटक दिया, साथ ही एक आवाज दे कर गोला फट गया और बहुत-सा जहरीला धुआँ फैला जिसको देखते ही आफत खाँ, जालिम खाँ और उनके साथी लोग जल्दी से हट गए इस पर भी उन लोगों की आँखें सूज गईं और सिर घूमने लगा। यह देख कर आफत खाँ ने अपने बटुए में से मरहम की एक डिबिया निकाली और सभी की आँखों में वह मरहम लगाया तथा हाथ में मल कर सुँघाया जिससे उन लोगों की तबीयत कुछ ठिकाने हुई और वे आफत खाँ की तारीफ करने लगे।

जालिम – ‘वाह उस्ताद, यह तो तुमने बहुत ही बढ़िया चीज बनाई है।’

आफत – ‘क्यों, अब तो महल में चलने का हौसला हुआ?’

जालिम – ‘शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने तुम्हें मिला दिया। जो काम हम साल भर में करते सो तुम एक रोज में कर सकते हो। वाह उस्ताद वाह। अब तो हम लोग उछलते-कूदते महल में चलेंगे और सभी को दोजख में पहुँचाएँगे, लाओ एक-एक गोला सभी को दे दो।’

आफत – ‘अभी क्यों, जब चलने लगेगे दे देंगे, कल का दिन जो काटना है।’

जालिम – ‘अच्छा, लेकिन उस्ताद, तुमने इतने दिन पीछे का इश्तिहार क्यों दिया? आज का ही दिन अगर मुकर्रर किया होता तो मजा हो जाता।’

आफत – ‘हमने समझा कि बद्रीनाथ जरा चालाक है, शायद जल्दी हाथ न लगे इसलिए ऐसा किया, मगर यह तो निरा बोदा निकला।’

जालिम – ‘अब क्या करना चाहिए?’

आफत – ‘इस वक्त तो कुछ नहीं, मगर कल बारह बजे रात को महल में चलने के लिए तैयार रहना चाहिए।’

जालिम – ‘इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, अब तो हम और तुम साथ ही हैं, जब जो कहोगे, करेंगे।’

आफत – ‘अच्छा तो आज यहाँ से टल कर किसी दूसरी जगह आराम करना मुनासिब है। कल देखो खुदा क्या करता है। मैं तो कसम खा चुका हूँ कि महल में जा कर बिना सभी का काम तमाम किए एक दाना मुँह में नहीं डालूँगा।’

जालिम – ‘उस्ताद, ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम कमजोर हो जाओगे।’

आफत – ‘बस चुप रहो, बिना खाए हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता।’

इसके बाद वे सब वहाँ से उठ कर एक तरफ को रवाना हो गए।

बयान - 12

वह दिन आ गया कि जब बारह बजे रात को बद्रीनाथ का सिर ले कर आफत खाँ महल में पहुँचे। आज शहर भर में खलबली मची हुई थी। शाम ही से महाराज जयसिंह खुद सब तरह का इंतजाम कर रहे थे। बड़े-बड़े बहादुर और फुर्तीले जवांमर्द महल के अंदर इकट्ठा किए जा रहे थे। सभी में जोश फैलता जाता था। महाराज खुद हाथ में तलवार लिए इधर-से-उधर टहलते और लोगों की बहादुरी की तारीफ करके कहते थे कि सिवाय अपने जान-पहचान के किसी गैर को किसी वक्त कहीं देखो गिरफ्तार कर लो, और बहादुर लोग आपस में डींग हाँक रहे थे कि यूँ पकड़ूँगा, यूँ कटूँगा। महल के बाहर पहरे का इंतजाम कम कर दिया गया, क्योंकि महाराज को पूरा भरोसा था कि महल में आते ही आफत खाँ को गिरफ्तार कर लेंगे और जब बाहर पहरा कम रहेगा तो वह बखूबी महल में चला आएगा, नहीं तो दो-चार पहरे वालों को मार कर भाग जाएगा। महल के अंदर रोशनी भी खूब कर दी गई, तमाम महल दिन की तरह चमक रहा था।

आधी रात बीतने ही वाली थी कि पूरब की छत से छः आदमी धमाधम कूद कर धड़धड़ाते हुए उस भीड़ के बीच में आ कर खड़े हो गए, जहाँ बहुत से बहादुर बैठे और खड़े थे। सबके आगे वही आफत खाँ बद्रीनाथ का सिर हाथ में लटकाए हुए था।

बयान - 13

खोह वाले तिलिस्म के अंदर बाग में कुँवर वीरेंद्रसिंह और योगी जी मे बातचीत होने लगी जिसे वनकन्या और इनके ऐयार बखूबी सुन रहे थे।

कुमार - ‘पहले यह कहिए चंद्रकांता जीती है या मर गई?’

योगी – ‘राम-राम, चंद्रकांता को कोई मार सकता है? वह बहुत अच्छी तरह से इस दुनिया में मौजूद है।’

कुमार - ‘क्या उससे और मुझसे फिर मुलाकात होगी?’

योगी – ‘जरूर होगी।’

कुमार - ‘कब?’

योगी - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) – ‘जब यह चाहेगी।’

इतना सुन कुमार वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त उसकी अजीब हालत थी। बदन में घड़ी-घड़ी कँपकँपी हो रही थी, घबराई-सी नजर पड़ती थी। उसकी ऐसी गति देख कर एक दफा योगी ने अपनी कड़ी और तिरछी निगाह उस पर डाली, जिसे देखते ही वह सँभल गई। कुँवर वीरेंद्रसिंह ने भी इसे अच्छी तरह से देखा और फिर कहा -

कुमार - ‘अगर आपकी कृपा होगी तो मैं चंद्रकांता से अवश्य मिल सकूँगा।’

योगी – ‘नहीं यह काम बिल्कुल (वनकन्या को दिखा कर) इसी के हाथ में है, मगर यह मेरे हुक्म में है, अस्तु आप घबराते क्यों हैं। और जो-जो बातें आपको पूछनी हो पूछ लीजिए, फिर चंद्रकांता से मिलने की तरकीब भी बता दी जाएगी।’

कुमार - ‘अच्छा यह बताइए कि यह वनकन्या कौन है?’

योगी – ‘यह एक राजा की लड़की है।’

कुमार - ‘मुझ पर इसने बहुत उपकार किए, इसका क्या सबब है?’

योगी - इसका यही सबब है कि कुमारी चंद्रकांता में और इसमें बहुत प्रेम है।’

कुमार - ‘अगर ऐसा है तो मुझसे शादी क्यों किया चाहती है?’

योगी – ‘तुम्हारे साथ शादी करने की इसको कोई जरूरत नहीं और न यह तुमको चाहती ही है। केवल चंद्रकांता की जिद्द से लाचार है, क्योंकि उसको यही मंजूर है।’

योगी की आखिरी बात सुन कर कुमार मन में बहुत खुश हुए और फिर योगी से बोले - ‘जब चंद्रकांता में और इनमे इतनी मुहब्बत है तो यह उसे मेरे सामने क्यों नहीं लातीं?’

योगी – ‘अभी उसका समय नहीं है।’

कुमार - ‘क्यो’

योगी – ‘जब राजा सुरेंद्रसिंह और जयसिंह को आप यहाँ लाएँगे, तब यह कुमारी चंद्रकांता को ला कर उनके हवाले कर देगी।’

कुमार - ‘तो मैं अभी यहाँ से जाता हूँ, जहाँ तक होगा उन दोनों को ले कर बहुत जल्द आऊँगा।’

योगी – ‘मगर पहले हमारी एक बात का जवाब दे लो।’

कुमार - ‘वह क्या?’

योगी - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) ‘इस लड़की ने तुम्हारी बहुत मदद की है और तुमने तथा तुम्हारे ऐयारों ने इसे देखा भी है। इसका हाल और कौन-कौन जानता है और तुम्हारे ऐयारों के सिवाय इसे और किस-किस ने देखा है?’

कुमार - ‘मेरे और फतहसिंह के सिवाय इन्हें आज तक किसी ने नहीं देखा। आज ये ऐयार लोग इनको देख रहे हैं।’

वनकन्या – ‘एक दफा ये (तेजसिंह की तरफ बता कर) मुझसे मिल गए हैं, मगर शायद वह हाल इन्होंने आपसे न कहा हो, क्योंकि मैंने कसम दे दी थी।’

यह सुन कर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा। उन्होंने कहा - ‘जी हाँ, यह उस वक्त की बात है, जब आपने मुझसे कहा था कि आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है। तब मैंने कोशिश करके इनसे मुलाकात की और कहा कि अपना पूरा हाल मुझसे जब तक न कहेंगी मैं न मानूँगा और आपका पीछा न छोडूँगा। तब इन्होंने कहा – “एक दिन वह आएगा कि चंद्रकांता और मै, कुमार की कहलाएँगी मगर इस वक्त तुम मेरा पीछा मत करो नहीं तो तुम्हीं लोगों के काम का हर्ज होगा।” तब मैंने कहा – “अगर आप इस बात की कसम खाएँ कि चंद्रकांता, कुमार को मिलेंगी तो इस वक्त मैं यहाँ से चला जाऊँ।” इन्होंने कहा – “तुम भी इस बात की कसम खाओ कि आज का हाल तब तक किसी से न कहोगे जब तक मेरा और कुमार का सामना न हो जाए।” आखिर इस बात की हम दोनों ने कसम खाई। यही सबब है कि पूछने पर भी मैंने यह सब हाल किसी से नहीं कहा, आज इनका और आपका पूरी तौर से सामना हो गया इसलिए कहता हूँ।’

योगी - (कुमार से) ‘अच्छा तो इस लड़की को सिवाय तुम्हारे तथा ऐयारों के और किसी ने नहीं देखा, मगर इसका हाल तो तुम्हारे लश्कर वाले जानते होंगे कि आजकल कोई नई औरत आई है जो कुमार की मदद कर रही है?’

कुमार - ‘नहीं, यह हाल भी किसी को मालूम नहीं, क्योंकि सिवाय ऐयारों के मैं और किसी से इनका हाल कहता ही न था और ऐयार लोग, सिवाय अपनी मंडली के दूसरे को किसी बात का पता क्यों देने लगे। हाँ, इनके नकाबपोश सवारों को हमारे लश्कर वालों ने कई दफा देखा है और इनका खत ले कर भी जब-जब कोई हमारे पास गया तब हमारे लश्कर वालों ने देख कर शायद कुछ समझा हो।’

योगी – ‘इसका कोई हर्ज नहीं, अच्छा यह बताओ कि तुम्हारी जुबानी राजा सुरेंद्रसिंह और जयसिंह ने भी कुछ इसका हाल सुना है?’

कुमार - ‘उन्होंने तो नहीं सुना हाँ, तेजसिंह के पिता जीतसिंह जी से मैंने सब हाल जरूर कह दिया था, शायद उन्होंने मेरे पिता से कहा हो।’

योगी – ‘नहीं, जीतसिंह यह सब हाल तुम्हारे पिता से कभी न कहेंगे। मगर अब तुम इस बात का खूब ख्याल रखो कि वनकन्या ने जो-जो काम तुम्हारे साथ किए हैं, उनका हाल किसी को न मालूम हो।’

कुमार - ‘मैं कभी न कहूँगा, मगर आप यह तो बताएँ कि इनका हाल किसी से न कहने में क्या फायदा सोचा है? अगर मैं किसी से कहूँगा तो इसमें इनकी तारीफ ही होगी।’

योगी – ‘तुम लोगों के बीच में चाहे इसकी तारीफ हो मगर जब यह हाल इसके माँ-बाप सुनेंगे तो उन्हें कितना रंज होगा? क्योंकि एक बड़े घर की लड़की का पराए मर्द से मिलना और पत्र-व्यवहार करना तथा ब्याह का संदेश देना इत्यादि कितने ऐब की बात है।’

कुमार - ‘हाँ, यह तो ठीक है। अच्छा, इनके माँ-बाप कौन हैं और कहाँ रहते हैं।’

योगी – ‘इसका हाल भी तुमको तब मालूम होगा जब राजा सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह यहाँ आएँगे और कुमारी चंद्रकांता उनके हवाले कर दी जाएगी।’

कुमार - ‘तो आप मुझे हुक्म दीजिए कि मैं इसी वक्त उन लोगों को लाने के लिए यहाँ से चला जाऊँ।’

योगी – ‘यहाँ से जाने का भला यह कौन-सा वक्त है। क्या शहर का मामला है? रात-भर ठहर जाओ, सुबह को जाना, रात भी अब थोड़ी ही रह गई है, कुछ आराम कर लो।’

कुमार - ‘जैसी आपकी मर्जी।’

गर्मी बहुत थी इस वजह से उसी मैदान में कुमार ने सोना पसंद किया। इन सभी के सोने का इंतजाम योगी जी के हुक्म से उसी वक्त कर दिया गया। इसके बाद योगी जी अपने कमरे की तरफ रवाना हुए और वनकन्या भी एक तरफ को चली गई।

थोड़ी-सी रात बाकी थी, वह भी उन लोगों को बातचीत करते बीत गई। अभी सूरज नहीं निकला था कि योगी जी अकेले फिर कुमार के पास आ मौजूद हुए और बोले - ‘मैं रात को एक बात कहना भूल गया था सो इस वक्त समझा देता हूँ। जब राजा जयसिंह इस खोह में आने के लिए तैयार हो जाएँ बल्कि तुम्हारे पिता और जयसिंह दोनों मिल कर इस खोह के दरवाजे तक आ जाएँ, तब पहले तुम उन लोगों को बाहर ही छोड़ कर अपने ऐयारों के साथ यहाँ आ कर हमसे मिल जाना, इसके बाद उन लोगों को यहाँ लाना, और इस वक्त स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर तब यहाँ से जाओ।’

कुमार ने ऐसा ही किया, मगर योगी की आखिरी बात से इनको और भी ताज्जुब हुआ कि हमें पहले क्यों बुलाया।

कुछ खाने का सामान हो गया। कुमार और उनके ऐयारों को खिला-पिला कर योगी ने विदा कर दिया।

दोहरा कर लिखने की कोई जरूरत नहीं, खोह में घूमते-फिरते कुँवर वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयार जिस तरह इस बाग तक आए थे, उसी तरह इस बाग से दूसरे और दूसरे से तीसरे में होते सब लोग खोह के बाहर हुए और एक घने पेड़ के नीचे सबों को बैठा, देवीसिंह कुमार के लिए घोड़ा लाने नौगढ़ चले गए।

थोड़ा दिन बाकी था जब देवीसिंह घोड़ा ले कर कुमार के पास पहुँचे, जिस पर सवार हो कर कुँवर वीरेंद्रसिंह अपने ऐयारों के साथ नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

नौगढ़ पहुँच कर अपने पिता से मुलाकात की और महल में जा कर अपनी माता से मिले। अपना कुल हाल किसी से नहीं कहा, हाँ, पन्नालाल वगैरह की जुबानी इतना हाल इनको मिला कि कोई जालिम खाँ इन लोगों का दुश्मन पैदा हुआ है जिसने विजयगढ़ में कई खून किए हैं और वहाँ की रियाया उसके नाम से काँप रही है, पंडित बद्रीनाथ उसको गिरफ्तार करने गए हैं, उनके जाने के बाद यह भी खबर मिली है कि एक आफत खाँ नामी दूसरा शख्स पैदा हुआ है जिसने इस बात का इश्तिहार दे दिया है कि फलाने रोज बद्रीनाथ का सिर ले कर महल में पहुँचूंगा, देखूँ मुझे कौन गिरफ्तार करता है।

इन सब खबरों को सुन कर कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी बहुत घबराए और सोचने लगे कि जिस तरह हो विजयगढ़ पहुँचना चाहिए क्योंकि अगर ऐसे वक्त में वहाँ पहुँच कर महाराज जयसिंह की मदद न करेंगे और उन शैतानों के हाथ से वहाँ की रियाया को न बचाएँगे तो कुमारी चंद्रकांता को हमेशा के लिए ताना मारने की जगह मिल जाएगी और हम उसके सामने मुँह दिखाने लायक भी न रहेंगे।

इसके बाद यह भी मालूम हुआ कि जीतसिंह पंद्रह दिनों की छुट्टी ले कर कहीं गए हैं। इस खबर ने तेजसिंह को परेशान कर दिया। वह इस सोच में पड़ गए कि उनके पिता कहाँ गए, क्योंकि उनकी बिरादरी में कहीं कुछ काम न था जहाँ जाते, तब इस बहाने से छुट्टी ले कर क्यों गए?

तेजसिंह ने अपने घर में जा कर अपनी माँ से पूछा – ‘हमारे पिता कहाँ गए हैं?’ जिसके जवाब में उस बेचारी ने कहा - ‘बेटा, क्या ऐयारों के घर की औरतें इस लायक होती हैं कि उनके मालिक अपना ठीक-ठीक हाल उनसे कहा करें।’

इतना ही सुन कर तेजसिंह चुप हो गए। दूसरे दिन राजा सुरेंद्रसिंह के पूछने पर तेजसिंह ने इतना कहा – ‘हम लोग कुमारी चंद्रकांता को खोजने के लिए खोह में गए थे, वहाँ एक योगी से मुलाकात हुई जिसने कहा कि अगर महाराज सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह को ले कर यहाँ आओ तो मैं चंद्रकांता को बुला कर उसके बाप के हवाले कर दूँ। इसी सबब से हम लोग आपको और महाराज जयसिंह को लेने आए हैं।’

राजा सुरेंद्रसिंह ने खुश हो कर कहा - ‘हम तो अभी चलने को तैयार हैं मगर महाराज जयसिंह तो ऐसी आफत में फँस गए हैं कि कुछ कह नहीं सकते। पंडित बद्रीनाथ यहाँ से गए हैं, देखें क्या होता है। तुमने तो वहाँ का हाल सुना ही होगा।’

तेजसिंह – ‘मैं सब हाल सुन चुका हूँ, हम लोगों को वहाँ पहुँच कर मदद करना मुनासिब है।’

सुरेंद्रसिंह – ‘मैं खुद यह कहने को था। कुमार की क्या राय है, वे जाएँगे या नहीं?’

तेजसिंह – ‘आप खुद जानते हैं कि कुमार काल से भी डरने वाले नहीं, वह जालिम खाँ क्या चीज है।’

राजा – ‘ठीक है, मगर किसी वीर पुरुष का मुकाबला करना हम लोगों का धर्म है और चोर तथा डाकुओं या ऐयारों का मुकाबला करना तुम लोगों का काम है, क्या जाने वह छिप कर कहीं कुमार ही पर घात कर बैठे।’

तेजसिंह – ‘वीरों और बहादुरों से लड़ना कुमार का काम है सही, मगर दुष्ट, चोर-डाकू या और किसी को भी क्या मजाल है कि हम लोगों के रहते कुमार का बाल भी बाँका कर जाए।’

राजा – ‘हम तो नाम के आगे जान कोई चीज नहीं समझते, मगर दुष्ट घातियों से बचे रहना भी धर्म है। सिवाय इसके कुमार के वहाँ गए बिना कोई हर्ज भी नहीं है, अस्तु तुम लोग जाओ और महाराज जयसिंह की मदद करो। जब जालिम खाँ गिरफ्तर हो जाए तो महाराज को सब हाल कह-सुना कर यहाँ लेते आना, फिर हम भी साथ होकर खोह में चलेंगे।’

राजा सुरेंद्रसिंह की मर्जी, कुमार को इस वक्त विजयगढ़ जाने देने की नहीं समझ कर और राजा से बहुत जिद करना भी बुरा ख्याल करके तेजसिंह चुप ही रहे, अकेले ही विजयगढ़ जाने के लिए महाराज से हुक्म लिया और उनके खास हाथ की लिखा हुआ खत का खलीता ले कर विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

कुछ दूर जा कर दोपहर की धूप घने जंगल के पेड़ों की झुरमुट में काटी और ठंडे हो रवाना हुए। विजयगढ़ पहुँच कर महल में आधी रात को ठीक उस वक्त पहुँचे जब बहुत से जवांमर्दों की भीड़ बटुरी हुई थी और हर एक आदमी चौकन्ना हो कर हर तरफ देख रहा था। यकायक पूरब की छत से धमाधम छः आदमी कूद कर बीचोंबीच भीड़ में आ खड़े हुए, जिनके आगे-आगे बद्रीनाथ का सिर हाथ में लिए आफत खाँ था।

तेजसिंह को अभी तक किसी ने नहीं देखा था, इस वक्त इन्होंने ललकार कर कहा - ‘पकड़ो इन नालायकों को, अब देखते क्या हो?’ इतना कह कर आप भी कमंद फैला कर उन लोगों की तरफ फेंका, तब तक बहुत से आदमी टूट पड़े। उन लोगों के हाथ में जो गेद मौजूद थे, जमीन पर पटकने लगे, मगर कुछ नहीं, वहाँ तो मामला ही ठंडा था, गेद क्या थी धोखे था। कुछ करते-धारते न बन पड़ा और सब-के-सब गिरफ्तार हो गए।

अब तेजसिंह को सभी ने देखा, आफत खाँ ने भी इनकी तरफ देखा और कहा - ‘तेज, मेमचे बद्री।’ इतना सुनते ही तेजसिंह ने आफत खाँ का हाथ पकड़ कर इनको सभी से अलग कर लिया और हाथ-पैर खोल गले से लगा लिया। सब शोर-गुल मचाने लगे - ‘हाँ-हाँ, यह क्या करते हो, यह तो बड़ा भारी दुष्ट है, इसी ने तो बद्रीनाथ को मारा है। देखो, इसी के हाथ में बेचारे बद्रीनाथ का सिर है, तुम्हें क्या हो गया कि इसके साथ नेकी करते हो?’

पर तेजसिंह ने घुड़क कर कहा - ‘चुप रहो, कुछ खबर भी है कि यह कौन हैं? बद्रीनाथ को मारना क्या खेल हो गया है?’

तेजसिंह की इज्जत को सब जानते थे। किसी की मजाल न थी कि उनकी बात काटता। आफत खाँ को उनके हवाले करना ही पड़ा, मगर बाकी पाँचों आदमियों को खूब मजबूती से बाँधा।

आफत खाँ का हाथ भी तेजसिंह ने छोड़ दिया और साथ-साथ लिए हुए महाराज जयसिंह की तरफ चले। चारों तरफ धूम मची थी, जालिम खाँ और उसके साथियों के गिरफ्तार हो जाने पर भी लोग काँप रहे थे, महाराज भी दूर से सब तमाशा देख रहे थे। तेजसिंह को आफत खाँ के साथ अपनी तरफ आते देख घबरा गए। म्यान से तलवार खींच ली।

तेजसिंह ने पुकार कर कहा - ‘घबराइए नहीं, हम दोनों आपके दुश्मन नहीं हैं। ये जो हमारे साथ हैं और जिन्हें आप कुछ और समझे हुए हैं, वास्तव में पंडित बद्रीनाथ हैं।’ यह कह आफत खाँ की दाढ़ी हाथ से पकड़ कर झटक दी जिससे बद्रीनाथ कुछ पहचाने गए।

आप महाराज जयसिंह का जी ठिकाने हुआ, पूछा - ‘बद्रीनाथ उनके साथ क्यों थे?’

बद्रीनाथ - ‘महाराज, अगर मैं उनका साथी न बनता तो उन लोगों को यहाँ तक ला कर गिरफ्तार कौन कराता?’

महाराज – ‘तुम्हारे हाथ में यह सिर किसका लटक रहा है?’

बद्रीनाथ - ‘मोम का, बिल्कुल बनावटी।’

अब तो धूम मच गई कि जालिम खाँ को बद्रीनाथ ऐयार ने गिरफ्तार कराया। इनके चारों तरफ भीड़ लग गई, एक पर एक टूटा पड़ता था। बड़ी ही मुश्किल से बद्रीनाथ उस झुंड से अलग किए गए। जालिम खाँ वगैरह को भी मालूम हो गया कि आफत खाँ कृपानिधान बद्रीनाथ ही थे, जिन्होंने हम लोगों को बेढ़ब धोखा दे कर फँसाया, मगर इस वक्त क्या कर सकते थे? हाथ-पैर सभी के बँधे थे, कुछ जोर नहीं चल सकता था, लाचार हो कर बद्रीनाथ को गालियाँ देने लगे। सच है जब आदमी की जान पर आ बनती है तब जो जी में आता है बकता है।

बद्रीनाथ ने उनकी गालियों का कुछ भी ख्याल न किया बल्कि उन लोगों की तरफ देख कर हँस दिया। इनके साथ बहुत से आदमी बल्कि महाराज तक हँस पड़े।

महाराज के हुक्म से सब आदमी महल के बाहर कर दिए गए, सिर्फ थोड़े से मामूली उमदा लोग रह गए और महल के अंदर ही कोठरी में हाथ-पैर जकड़ जालिम खाँ और उसके साथी बंद कर दिए गए। पानी मँगवा कर बद्रीनाथ का हाथ-पैर धुलवाया गया, इसके बाद दीवानखाने में बैठ कर बद्रीनाथ से सब खुलासा हाल जालिम खाँ के गिरफ्तार करने का पूछने लगे जिसको सुनने के लिए तेजसिंह भी व्याकुल हो रहे थे।

बद्रीनाथ ने कहा - ‘महाराज, इस दुष्ट जालिम खाँ से मिलने की पहली तरकीब मैंने यह की कि अपना नाम आफत खाँ रख कर इश्तिहार दिया और अपने मिलने का ठिकाना ऐसी बोली में लिखा कि सिवाय उसके या ऐयारों के किसी को समझ में न आए। यह तो मैं जानता ही था कि यहाँ इस वक्त कोई ऐयार नहीं है जो मेरी इस लिखावट को समझेगा।’

महाराज – ‘हाँ ठीक है, तुमने अपने मिलने का ठिकाना ‘टेटी-चोटी’ लिखा था, इसका क्या अर्थ है?’

बद्रीनाथ - ‘ऐयारी बोली में ‘टेटी-चोटी’ भयानक नाले को कहते हैं।’

इसके बाद बद्रीनाथ ने जालिम खाँ से मिलने का और गेद का तमाशा दिखला के धोखे का गेद उन लोगों के हवाले कर, भुलावा दे, महल में ले आने का पूरा-पूरा हाल कहा, जिसको सुन कर महाराज बहुत ही खुश हुए और इनाम में बहुत-सी जागीर बद्रीनाथ को देना चाही मगर उन्होंने उसको लेने से बिल्कुल इंकार किया और कहा कि बिना मालिक की आज्ञा के मैं आपसे कुछ नहीं ले सकता, उनकी तरफ से मैं जिस काम पर मुकर्रर किया गया था, जहाँ तक हो सका उसे पूरा कर दिया।

इसी तरह के बहुत से उज्र बद्रीनाथ ने किए जिसको सुन महाराज और भी खुश हुए और इरादा कर लिया कि किसी और मौके पर बद्रीनाथ को बहुत कुछ देंगे जबकि वे लेने से इंकार न कर सकेंगे। बात ही बात में सवेरा हो गया, तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से विदा हो दीवान हरदयालसिंह के घर आए।

बयान - 14

सुबह को खुशी-खुशी महाराज ने दरबार किया। तेजसिंह और बद्रीनाथ भी बड़ी इज्जत से बैठाए गए। महाराज के हुक्म से जालिम खाँ और उसके चारों साथी दरबार में लाए गए जो हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े हुए थे। हुक्म पा तेजसिंह, जालिम खाँ से पूछने लगे -

तेजसिंह – ‘क्यों जी, तुम्हारा नाम ठीक-ठीक जालिम खाँ है या और कुछ?’

जालिम – ‘इसका जवाब मैं पीछे दूँगा, पहले यह बताइए कि आप लोगों के यहाँ ऐयारों को मार डालने का कायदा है या नहीं?’

तेजसिंह – ‘हमारे यहाँ क्या हिंदुस्तान भर में कोई धार्मिष्ठ हिंदू राजा ऐयार को कभी जान से न मारेगा। हाँ, वह ऐयार जो अपने कायदे के बाहर काम करेगा जरूर मारा जाएगा।’

जालिम – ‘तो क्या हम लोग मारे जाएँगे?’

तेजसिंह – ‘यह खुशी महाराज की, मगर क्या तुम लोग ऐयार हो जो ऐसी बातें पूछते हो?’

जालिम – ‘हाँ, हम लोग ऐयार हैं।’

तेजसिंह – ‘राम-राम, क्यों ऐयारी का नाम बदनाम करते हो। तुम तो पूरे डाकू हो, ऐयारी से तुम लोगों का क्या वास्ता?’

जालिम – ‘हम लोग कई पुश्त से ऐयार होते आ रहे हैं कुछ आज नए ऐयार नहीं बने।’

तेजसिंह – ‘तुम्हारे बाप-दादा शायद ऐयार हुए हों, मगर तुम लोग तो खासे दुष्ट डाकुओं में से हो।’

जालिम – ‘जब आपने हमारा नाम डाकू ही रखा है, तो बचने की क्या उम्मीद हो सकती है।’

तेजसिंह – ‘जो हो, खैर यह बताओ कि तुम हो कौन?’

जालिम – ‘जब मारे ही जाना है तो नाम बता कर बदनामी क्यों लें और अपना पूरा हाल भी किसलिए कहें। हाँ इसका वादा करो कि जान से न मारोगे तो कहें।’

तेजसिंह – ‘यह वादा कभी नहीं हो सकता और अपना ठीक-ठीक हाल भी तुमको झख मार कर कहना होगा।’

जालिम – ‘कभी नहीं कहेंगे।’

तेजसिंह – ‘फिर जूतों से तुम्हारे सिर की खबर खूब ली जाएगी।’

जालिम – ‘चाहे जो हो।’

बद्रीनाथ - ‘वाह रे जूतीखोर।’

जालिम - (बद्रीनाथ से) ‘उस्ताद, तुमने बड़ा धोखा दिया, मानता हूँ तुमको।’

बद्रीनाथ - ‘तुम्हारे मानने से होता ही क्या है, आज नहीं तो कल तुम लोगों के सिर धड़ से अलग दिखाई देंगे।’

जालिम – ‘अफसोस कुछ करने न पाए।’

तेजसिंह ने सोचा कि इस बकवास से कोई मतलब न निकलेगा, हजार सिर पटकेंगे पर जालिम खाँ अपना ठीक-ठीक हाल कभी न कहेगा, इससे बेहतर है कि कोई तरकीब की जाए, अस्तु कुछ सोच कर महाराज से अर्ज किया - ‘इन लोगों को कैदखाने में भेजा जाए फिर जैसा होगा देखा जाएगा, और इनमें से वह एक आदमी (हाथ से इशारा करके) इसी जगह रखा जाए।’ महाराज के हुक्म से ऐसा ही किया गया।

तेजसिंह के कहे मुताबिक उन डाकुओं में से एक को उसी जगह छोड़ बाकी सभी को कैदखाने की तरफ रवाना किया। जाती दफा जालिम खाँ ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा - ‘उस्ताद, तुम बड़े चालाक हो। इसमें कोई शक नहीं कि चेहरे से आदमी के दिल का हाल खूब पहचानते हो, अच्छे डरपोक को चुन के रख लिया, अब तुम्हारा काम निकल जाएगा।’

तेजसिंह ने मुस्करा कर जवाब दिया - ‘पहले इसकी दुर्दशा कर ली जाए फिर तुम लोग भी एक-एक करके इसी जगह लाए जाओगे।’

जालिम खाँ और उसके तीन साथी तो कैदखाने की तरफ भेज दिए गए, एक उसी जगह रह गया। हकीकत में वह बहुत डरपोक था। अपने को उसी जगह रहते और साथियों को दूसरी जगह जाते देख घबरा उठा। उसके चेहरे से उस वक्त और भी बदहवासी बरसने लगी जब तेजसिंह ने एक चोबदार को हुक्म दिया – ‘अँगीठी में कोयला भर कर तथा दो-तीन लोहे की सींखें जल्दी से लाओ, जिनके पीछे लकड़ी की मूठ लगी हो।’

दरबार में जितने थे सब हैरान थे कि तेजसिंह ने लोहे की सलाख और अंगीठी क्यों मँगाई और उस डाकू की तो जो कुछ हालत थी लिखना मुश्किल है।

चार-पाँच लोहे के सींखचे और कोयले से भरी हुई अंगीठी लाई गई।

तेजसिंह ने एक आदमी से कहा - ‘आग सुलगाओ और इन लोहे की सींखों को उसमें गरम करो।’

अब उस डाकू से न रहा गया, उसने डरते हुए पूछा - ‘क्यों तेजसिंह, इन सींखों को तपा कर क्या करोगे?’

तेजसिंह – ‘इनको लाल करके दो तुम्हारी दोनों आँखों में, दो दोनों कानों में और एक सलाख मुँह खोल कर पेट के अंदर पहुँचाई जाएगी।’

डाकू – ‘आप लोग तो रहमदिल कहलाते हैं, फिर इस तरह तकलीफ दे कर किसी को मारना क्या आप लोगों की रहमदिली में बट्टा न लगाएगा?’

तेजसिंह - (हँस कर) ‘तुम लोगों को छोड़ना बड़े संगदिल का काम है, जब तक तुम जीते रहोगे हजारों की जानें लोगे, इससे बेहतर है कि तुम्हारी छुट्टी कर दी जाए। जितनी तकलीफ दे कर तुम लोगों की जान ली जाएगी, उतना ही डर तुम्हारे शैतान भाइयों को होगा।’

डाकू – ‘तो क्या अब किसी तरह हमारी जान नहीं बच सकती?’

तेजसिंह – ‘सिर्फ एक तरह से बच सकती है।’

डाकू – ‘कैसे?’

तेजसिंह – ‘अगर अपने साथियों का हाल ठीक-ठीक कह दो तो अभी छोड़ दिए जाओगे।’

डाकू – ‘मैं ठीक-ठीक हाल कह दूँगा।’

तेजसिंह – ‘हम लोग कैसे जानेंगे कि तुम सच्चे हो?’

डाकू – ‘साबित कर दूँगा कि मैं सच्चा हूँ।’

तेजसिंह – ‘अच्छा कहो।’

डाकू – ‘सुनो कहता हूँ।’

इस वक्त दरबार में भीड़ लगी हुई थी। तेजसिंह ने आग की अंगीठी क्यों मँगाई? ये लोहे की सलाइएँ किस काम आएँगी? यह डाकू अपना ठीक-ठीक हाल कहेगा या नहीं? यह कौन है? इत्यादि बातों को जानने के लिए सभी की तबीयत घबरा रही थी। सभी की निगाहें उस डाकू के ऊपर थीं। जब उसने कहा कि मैं ठीक-ठीक हाल कह दूँगा। तब और भी लोगों का ख्याल उसी की तरफ जम गया और बहुत से आदमी उस डाकू की तरफ कुछ आगे बढ़ आए।

उस डाकू ने अपने साथियों का हाल कहने के लिए मुस्तैद हो कर मुँह खोला ही था कि दरबारी भीड़ में से एक जवान आदमी म्यान से तलवार खींच कर उस डाकू की तरफ झपटा और इस जोर से एक हाथ तलवार का लगाया कि उस डाकू का सिर धाड़ से अलग हो कर दूर जा गिरा, तब उसी खून भरी तलवार को घुमाता और लोगों को जख्मी करता वह बाहर निकल गया।

उस घबराहट में किसी ने भी उसे पकड़ने का हौसला न किया, मगर बद्रीनाथ कब रुकने वाले थे, साथ ही वह भी उसके पीछे दौड़े।

बद्रीनाथ के जाने के बाद सैकड़ों आदमी उस तरफ दौड़े, लेकिन तेजसिंह ने उसका पीछा न किया। वे उठ कर सीधे उस कैदखाने की तरफ दौड़ गए जिसमें जालिम खाँ वगैरह कैद किए गए थे। उनको इस बात का शक हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि उन लोगों को किसी ने ऐयारी करके छुड़ा दिया हो। मगर नहीं, वे लोग उसी तरह कैद थे। तेजसिंह ने कुछ और पहरे का इंतजाम कर दिया और फिर तुरंत लौट कर दरबार में चले आए।

पहले दरबार में जितनी भीड़ लगी हुई थी अब उससे चौथाई रह गई। कुछ तो अपनी मर्जी से बद्रीनाथ के साथ दौड़ गए, कितनों ने महाराज का इशारा पा कर उसका पीछा किया था। तेजसिंह के वापस आने पर महाराज ने पूछा - ‘तुम कहाँ गए थे?’

तेजसिंह – ‘मुझे यह फिक्र पड़ गई थी कि कहीं जालिम खाँ वगैरह तो नहीं छूट गए, इसलिए कैदखाने की तरफ दौड़ा गया था, मगर वे लोग कैदखाने में ही पाए गए।’

महाराज – ‘देखें बद्रीनाथ कब तक लौटते हैं और क्या करके लौटते हैं?’

तेजसिंह – ‘बद्रीनाथ बहुत जल्द आएँगे क्योंकि दौड़ने में वे बहुत ही तेज हैं।’

आज महाराज जयसिंह मामूली वक्त से ज्यादा देर तक दरबार में बैठे रहे। तेजसिंह ने कहा भी - ‘आज दरबार में महाराज को बहुत देर हुई?’ जिसका जवाब महाराज ने यह दिया कि जब तक बद्रीनाथ लौट कर नहीं आते या उनका कुछ हाल मालूम न हो ले, हम इसी तरह बैठे रहेंगे।’

बयान - 15

दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सभी का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं।

उस खूनी को कमंद से बाँधे साथ लिए हुए पंडित बद्रीनाथ आ पहुँचे।

महाराज – ‘बद्रीनाथ, कुछ यह भी मालूम हुआ कि यह कौन है?’

बद्रीनाथ - ‘कुछ नहीं बताता कि कौन है और न बताएगा।’

महाराज – ‘फिर?’

बद्रीनाथ - ‘फिर क्या? मुझे तो मालूम होता है कि इसने अपनी सूरत बदल रखी है।’

पानी मँगवा कर उसका चेहरा धुलवाया गया, अब तो उसकी दूसरी ही सूरत निकल आई।

भीड़ लगी थी, सभी में खलबली पड़ गई, मालूम होता था कि इसे सब कोई पहचानते हैं। महाराज चौंक पड़े और तेजसिंह की तरफ देख कर बोले - ‘बस-बस मालूम हो गया, यह तो नाजिम का साला है, मैं ख्याल करता हूँ कि जालिम खाँ वगैरह जो कैद हैं वे भी नाजिम और अहमद के रिश्तेदार ही होंगे। उन लोगों को फिर यहाँ लाना चाहिए।’

महाराज के हुक्म से जालिम खाँ वगैरह भी दरबार में लाए गए।

बद्रीनाथ - (जालिम खाँ की तरफ देख कर) ‘अब तुम लोग पहचाने गए कि नाजिम और अहमद के रिश्तेदार हो, तुम्हारे साथी ने बता दिया।’

जालिम खाँ इसका कुछ जवाब देना ही चाहता था कि वह खूनी (जिसे बद्रीनाथ अभी गिरफ्तार करके लाए थे) बोल उठा - ‘जालिम खाँ, तुम बद्रीनाथ के फेर में मत पड़ना, यह झूठे हैं। तुम्हारे साथी को हमने कुछ कहने का मौका नहीं दिया, वह बड़ा ही डरपोक था, मैंने उसे दोजख में पहुँचा दिया। हम लोगों की जान चाहे जिस दुर्दशा से जाए मगर अपने मुँह से अपना कुछ हाल कभी न कहना चाहिए।’

जालिम - (जोर से) ‘ऐसा ही होगा।’

इन दोनों की बातचीत से महाराज को बड़ा क्रोध आया। आँखें लाल हो गईं, बदन काँपने लगा। तेजसिंह और बद्रीनाथ की तरफ देख कर बोले - ‘बस हमको इन लोगों का हाल मालूम करने की कोई जरूरत नहीं, चाहे जो हो, अभी, इसी वक्त, इसी जगह, मेरे सामने इन लोगों का सिर धाड़ से अलग कर दिया जाए।’

हुक्म की देर थी, तमाम शहर इन डाकुओं के खून का प्यासा हो रहा था, उछल-उछल कर लोगों ने अपने-अपने हाथों की सफाई दिखाई। सभी की लाशें उठा कर फेंक दी गईं। महाराज उठ खड़े हुए।

तेजसिंह ने हाथ जोड़ कर अर्ज किया - ‘महाराज, मुझे अभी तक कहने का मौका नहीं मिला कि यहाँ किस काम के लिए आया था और न अभी बात कहने का वक्त है।’

महाराज – ‘अगर कोई जरूरी बात हो तो मेरे साथ महल में चलो।’

तेजसिंह – ‘बात तो बहुत जरूरी है मगर इस समय कहने को जी नहीं चाहता, क्योंकि महाराज को अभी तक गुस्सा चढ़ा हुआ है और मेरी भी तबीयत खराब हो रही है, मगर इस वक्त इतना कह देना मुनासिब समझता हूँ कि जिस बात के सुनने से आपको बेहद खुशी होगी मैं वही बात कहूँगा।’

तेजसिंह की आखिरी बात ने महाराज का गुस्सा एकदम ठंडा कर दिया और उनके चेहरे पर खुशी झलकने लगी। तेजसिंह का हाथ पकड़ लिया और महल में ले चले, बद्रीनाथ भी तेजसिंह के इशारे से साथ हुए।

तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लिए हुए महाराज अपने खास कमरे में गए और कुछ देर बैठने के बाद तेजसिंह के आने का कारण पूछा।

सब हाल खुलासा कहने के बाद तेजसिंह ने कहा - ‘अब आप और महाराज सुरेंद्रसिंह खोह में चलें और सिद्धनाथ योगी की कृपा से कुमारी को साथ ले कर खुशी-खुशी लौट आएँ।’

तेजसिंह की बात से महाराज को कितनी खुशी हुई इसका हाल लिखना मुश्किल है। लपक कर तेजसिंह को गले लगा लिया और कहा - ‘तुम अभी बाहर जा कर हरदयालसिंह को हमारे सफर की तैयारी करने का हुक्म दो और तुम लोग भी स्नान-पूजा करके कुछ खाओ-पीओ। मैं जा कर कुमारी की माँ को यह खुशखबरी सुनाता हूँ।’

आज के दिन का तीन हिस्सा आश्चर्य, रंज, गुस्से और खुशी में गुजर गया, किसी के मुँह में एक दाना अन्न नहीं गया था।

तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से विदा हो दीवान हरदयालसिंह के मकान पर गए और महाराज ने महल में जा कर कुमारी चंद्रकांता की माँ को, कुमारी से मिलने की उम्मीद दिलाई।

अभी घंटे भर पहले वह महल और ही हालत में था और अब सभी के चेहरे पर हँसी दिखाई देने लगी। होते-होते यह बात हजारों घरों में फैल गई कि महाराज कुमारी चंद्रकांता को लाने के लिए जा रहे हैं।

यह भी निश्चय हो गया कि आज थोड़ी-सी रात रहते महाराज जयसिंह नौगढ़ की तरफ कूच करेंगे।

बयान - 16

पाठक, अब वह समय आ गया कि आप भी चंद्रकांता और कुँवर वीरेंद्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जाएँगे और वहाँ से राजा सुरेंद्रसिंह और कुमार को साथ ले कर कुमारी से मिलने की उम्मीद में तिलिस्मी खोह के अंदर जाएँगे। आपको यह भी याद होगा कि सिद्धनाथ योगी ने तहखाने (खोह) से बाहर होते वक्त कुमार को कह दिया था कि जब अपने पिता और महाराज जयसिंह को ले कर इस खोह में आना तो उन लोगों को खोह के बाहर छोड़ कर पहले तुम आ कर एक दफा हमसे मिल जाना। उन्हीं के कहे मुताबिक कुमार करेंगे। खैर, इन लोगों को तो आप अपने काम में छोड़ दीजिए और थोड़ी देर के लिए आँखें बंद करके हमारे साथ उस खोह में चलिए और किसी कोने में छिप कर वहाँ रहने वालों की बातचीत सुनिए। शायद आप लोगों के जी का भ्रम यहाँ निकल जाए और दूसरे तीसरे भाग के बिल्कुल भेदों की बातें भी सुनते ही सुनते खुल जाएँ, बल्कि कुछ खुशी भी हासिल हो।

कुँवर वीरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह वगैरह तो आज वहाँ तक पहुँचते नहीं मगर आप इसी वक्त हमारे साथ उस तहखाने (खोह) में बल्कि उस बाग में पहुँचिए, जिसमें कुमार ने चंदकांता की तस्वीर का दरबार देखा था और जिसमें सिद्धनाथ योगी और वनकन्या से मुलाकात हुई थी।

आप इसी बाग में पहुँच गए। देखिए अस्त होते हुए सूर्य भगवान अपनी सुंदर लाल किरणों से मनोहर बाग के कुछ ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को चमका रहे हैं, कुछ-कुछ ठंडी हवा खुशबूदार फूलों की महक चारों तरफ फैला रही है। देखिए इस बाग के बीच वाले संगमरमर के चबूतरे पर तीन पलँग रखे हुए हैं, जिनके ऊपर खूबसूरत लौंडियाँ अच्छे-अच्छे बिछौने बिछा रही हैं, खास करके बीच वाले जड़ाऊ पलँग की सजावट पर सभी का ज्यादा ध्यान है। उधर देखिए वह घास का छोटा-सा रमना कैसे खुशनुमा बना हुआ है। उसमें की हरी-हरी दूब कैसे खूबसूरती से कटी हुई है, यकायक सब्ज मखमली फर्श में और इसमें कुछ भेद नहीं मालूम होता, और देखिए उसी सब्ज दूब के रमने के चारों तरफ रंग-बिरंगे फूलों से खूब गुथे हुए सीधे-सीधे गुलमेंहदी के पेड़ों की कतार पलटनों की तरह कैसी शोभा दे रही है।

उसके बगल की तरफ ख्याल कीजिए, चमेली का फूला हुआ तख्ता क्या रंग जमा रहा है और कैसे घने पेड़ हैं कि हवा को भी उसके अंदर जाने का रास्ता मिलना मुश्किल है, और इन दोनों तख्तों के बीच वाला छोटा-सा खूबसूरत बँगला क्या अच्छा लग रहा है तथा उसके चारों तरफ नीचे से ऊपर तक मालती की लता कैसी घनी चढ़ी हुई और फूल भी कितने ज्यादा फूले हुए हैं। अगर जी चाहे तो, किसी एक तरफ खड़े हो कर बिना इधर-उधर हटे हाथ भर का चँगेर भर लीजिए। पश्चिम तरफ निगाह दौड़ाइए, फूली हुई मेंहदी की टट्टी के नीचे जंगली रंग-बिरंगे पत्तों वाले हाथ डेढ़ हाथ ऊँचे दरख्तों (करोटन) की चौहरी कतार क्या भली मालूम होती है, और उसके बुँदकीदार, सुर्खी लिए हुए सफेद लकीरों वाले, सब्ज धारियों वाले, लंबे घूँघर वाले बालों की तरह ऐंठे हुए पत्तो क्या कैफियत दिखा रहे हैं और इधर-उधर हट के दोनों तरफ तिरकोनिया तख्तों की भी रंगत देखिए जो सिर्फ हाथ-भर ऊँचे रंगीन छिटकती हुई धारियों वाले पत्तो के जंगली पेड़ों (कौलियस) के गमलों से पहाड़ीनुमा सजाए हुए हैं और जिनके चारों तरफ रंग-बिरंगे देशी फूल खिले हुए हैं।

अब तो हमारी निगाह इधर-उधर और खूबसूरत क्यारियों, फूलों और छूटते हुए फव्वारों का मजा नहीं लेती, क्योंकि उन तीन औरतों के पास जा कर अटक गई है, जो मेंहदी के पत्ते तोड़ कर अपनी झोलियों में बटोर रही हैं। यहाँ निगाह भी अदब करती है, क्योंकि उन तीनों औरतों में से एक तो हमारी उपन्यास की ताज वनकन्या है और बाकी दोनों उसकी प्यारी सखियाँ हैं। वनकन्या की पोशाक तो सफेद है, मगर उसकी दोनों सखियों की सब्ज और सुर्ख।

वे तीनों मेंहदी की पत्तियाँ तोड़ चुकी, अब इस संगमरमर के चबूतरे की तरफ चली आ रही हैं। शायद इन्हीं तीनों पलंगों पर बैठने का इरादा हो।

हमारा सोचना ठीक हुआ। वनकन्या मेंहदी की पत्तियाँ जमीन पर उझल कर थकावट की मुद्रा में बिचले जड़ाऊ पलँग पर लेट गई और दोनों सखियाँ अगल-बगल वाले दोनों पलँगों पर बैठ गई। पाठक, हम और आप भी एक तरफ चुपचाप खड़े हो कर इन तीनों की बातचीत सुनें।

वनकन्या – ‘ओफ, थकावट मालूम होती है।’

सब्ज कपड़े वाली सखी – ‘घूम कर क्या कम आए है?’

सुर्ख कपड़े वाली सखी - (दूसरी सखी से) ‘क्या तू भी थक गई है?’

सब्ज सखी – ‘मैं क्यों थकने लगी? दस-दस कोस का रोज चक्कर लगाती रही, तब तो थकी ही नहीं।’

सुर्ख सखी – ‘ओफ, उन दिनों भी कितना दौड़ना पड़ा था। कभी इधर तो कभी उधर, कभी जाओ तो कभी आओ।’

सब्ज सखी – ‘आखिर कुमार के ऐयार हम लोगों का पता नहीं ही लगा सके।’

सुर्ख सखी – ‘खुद ज्योतिषी जी की अक्ल चकरा गई, जो बड़े रम्माल और नजूमी कहलाते थे, दूसरों की कौन कहे।’

वनकन्या – ‘ज्योतिषी जी के रमल को तो इन यंत्रों ने बेकार कर दिया, जो सिद्धनाथ बाबा ने हम लोगों के गले में डाल दिया है और अभी तक जिसे उतारने नहीं देते।’

सब्ज सखी – ‘मालूम नहीं इस ताबीज (यंत्र) में कौन-सी ऐसी चीज है जो रमल को चलने नहीं देती।’

वनकन्या – ‘मैंने यही बात एक दफा सिद्धनाथ बाबा जी से पूछी थी, जिसके जवाब में वे बहुत कुछ बक गए। मुझे सब तो याद नहीं कि क्या-क्या कह गए, हाँ, इतना याद है कि रमल जिस धातु से बनाई जाती है और रमल के साथी ग्रह, राशि, नक्षत्र, तारों वगैरह के असर पड़ने वाली जितनी धातुएँ हैं, उन सभी को एक साथ मिला कर यह यंत्र बनाया गया है इसलिए जिसके पास यह रहेगा, उसके बारे में कोई नजूमी या ज्योतिषी रमल के जरिए से कुछ नहीं देख सकेगा।’

सुर्ख सखी – ‘बेशक इसमें बहुत कुछ असर है। देखिए मैं सूरजमुखी बन कर गई थी, तब भी ज्योतिषी जी रमल से न बता सके कि यह ऐयार है।’

वनकन्या – ‘कुमार तो खूब ही छके होंगे?’

सुर्ख सखी – ‘कुछ न पूछिए, वे बहुत ही घबराए कि यह शैतान कहाँ से आई और क्या शर्त करा के अब क्या चाहती है?’

सब्ज सखी – ‘उसी के थोड़ी देर पहले मैं प्यादा बन कर खत का जवाब लेने गई थी और देवीसिंह को चेला बनाया था। यह कोई नहीं कह सका कि इसे मैं पहचानता हूँ।’

सुर्ख सखी - यह सब तो हुई मगर किस्मत भी कोई भारी चीज है। देखिए जब शिवदत्त के ऐयारों ने तिलिस्मी किताब चुराई थी और जंगल में ले जा कर जमीन के अंदर गाड़ रहे थे, उसी वक्त इत्तिफाक से हम लोगों ने पहुँच कर दूर से देख लिया कि कुछ गाड़ रहे हैं, उन लोगों के जाने के बाद खोद कर देखा तो तिलिस्मी किताब है।

वनकन्या – ‘ओफ, बड़ी मुश्किल से सिद्धनाथ ने हम लोगों को घूमने का हुक्म दिया था, इस पर भी कसम दे दी थी कि दूर-दूर से कुमार को देखना, पास मत जाना।’

सुर्ख सखी – ‘इसमें तुम्हारा ही फायदा था, बेचारे सिद्धनाथ कुछ अपने वास्ते थोड़े ही कहते थे।’

वनकन्या – ‘यह सब सच है, मगर क्या करें बिना देखे जी जो नहीं मानता।’

सब्ज सखी – ‘हम दोनों को तो यही हुक्म दे दिया था कि बराबर घूम-घूम कर कुमार की मदद किया करो। मालिन रूपी बद्रीनाथ से कैसा बचाया था।’

सुर्ख सखी – ‘क्या ऐयार लोग पता लगाने की कम कोशिश करते थे? मगर यहाँ तो ऐयारों के गुरुघंटाल सिद्धनाथ हरदम मदद पर थे, उनके किए हो क्या सकता था? देखो गंगा जी में नाव के पास आते वक्त तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी कैसा छके, हम लोगों ने सभी कपड़े तक ले लिए।’

सब्ज सखी - हम लोग तो जान-बूझ कर उन लोगों को अपने साथ लाए ही थे।’

वनकन्या – ‘चाहे वे लोग कितने ही तेज हों, मगर हमारे सिद्धनाथ को नहीं पा सकते। हाँ, उन लोगों में तेजसिंह बड़ा चालाक है।’

सुर्ख सखी – ‘तेजसिंह बहुत चालाक हैं तो क्या हुआ, मगर हमारे सिद्धनाथ तेजसिंह के भी बाप हैं।’

वनकन्या - (हँस कर) ‘इसका हाल तो तुम ही जानो।’

सुर्ख सखी – ‘आप तो दिल्लगी करती हैं।’

सब्ज सखी – ‘हकीकत में सिद्धनाथ ने कुमार और उनके ऐयारों को बड़ा भारी धोखा दिया। उन लोगों को इस बात का ख्याल तक न आया कि इस खोह वाले तिलिस्म को सिद्धनाथ बाबा हम लोगों के हाथ फतह करा रहे हैं।’

सुर्ख सखी – ‘जब हम लोग अंदर से इस खोह का दरवाजा बंद कर तिलिस्म तोड़ रहे थे तब तेजसिंह, बद्रीनाथ की गठरी ले कर इसमें आए थे, मगर दरवाजा बंद पाकर लौट गए।’

वनकन्या – ‘बड़ा ही घबराए होंगे कि अंदर से इसका दरवाजा किसने बंद कर दिया?’

सुर्ख सखी – ‘जरूर घबराए होंगे। इसी में क्या और कई बातों में हम लोगों ने कुमार और उनके ऐयारों को धोखा दिया था। देखिए मैं उधर सूरजमुखी बन कर कह आई कि शिवदत्त को छुड़ा दूँगी और इधर इस बात की कसम खिला कर कि कुमार से दुश्मनी न करेगा, शिवदत्त को छोड़ दिया। उन लोगों ने भी जरूर सोचा होगा कि सूरजमुखी कोई भारी शैतान है।’

वनकन्या – ‘मगर फिर भी हरामजादे शिवदत्त ने धोखा दिया और कुमार से दुश्मनी करने पर कमर बाँधी, उसके कसम का कोई एतबार नहीं।’

सुर्ख सखी – ‘इसी से फिर हम लोगों ने गिरफ्तार भी तो कर लिया और तिलिस्मी किताब पा कर फिर कुमार को दे दी। हाँ, क्रूरसिंह ने एक दफा हम लोगों को पहचान लिया था। मैंने सोचा कि अब अगर यह जीता बचा तो सब भंडा फूट जाएगा, बस लड़ ही तो गई। आखिर मेरे हाथ से उसकी मौत लिखी थी, मारा गया।’

सब्ज सखी – ‘उस मुए को धुन सवार थी कि हम ही तिलिस्म फतह करके खजाना ले लें।’

वनकन्या – ‘मुझको तो इसी बात की खुशी है यह खोह वाला तिलिस्म मेरे हाथ से फतह हुआ।’

सुर्ख सखी – ‘इसमें काम ही कितना था, इस पर सिद्धनाथ बाबा की मदद।’

वनकन्या – ‘खैर, एक बात तो है।’

बयान - 17

अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़, तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ ले कर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पाँच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ़ के करीब पहुँच कर डेरा डाला।

राजा सुरेंद्रसिंह को महाराज जयसिंह के पहुँचने की खबर मिली। उसी वक्त अपने मुसाहबों और सरदारों को साथ ले इस्तकबाल के लिए गए और अपने साथ शहर में आए।

महाराज जयसिंह के लिए पहले से ही मकान सजा रखा था, उसी में उनका डेरा डलवाया और जाफत के लिए कहा, मगर महाराज जससिंह ने जाफत से इंकार किया और कहा – ‘कई वजहों से मैं आपकी जाफत मंजूर नहीं कर सकता, आप मेहरबानी करके इसके लिए जिद न करें बल्कि इसका सबब भी न पूछें कि जाफत से क्यों इनकार करता हूँ।’

राजा सुरेंद्रसिंह इसका सबब समझ गए और जी में बहुत खुश हुए।

रात के वक्त कुँवर वीरेंद्रसिंह और बाकी के ऐयार लोग भी महाराज जयसिंह से मिले। कुमार को बड़ी खुशी के साथ महाराज ने गले लगाया और अपने पास बैठा कर तिलिस्म का हाल पूछते रहे। कुमार ने बड़ी खूबसूरती के साथ तिलिस्म का हाल बयान किया।

रात को ही यह राय पक्की हो गई कि सवेरे सूरज निकलने के पहले तिलिस्मी खोह में सिद्धनाथ बाबा से मिलने के लिए रवाना होंगे। उसी मुताबिक दूसरे दिन तारों की रोशनी रहते ही महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह, कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल वगैरह हजार आदमी की भीड़ ले कर तिलिस्मी तहखाने की तरफ रवाना हुए। तहखाना बहुत दूर न था, सूरज निकलते तक उस खोह (तहखाने) के पास पहुँचे।

कुँवर वीरेंद्रसिंह ने महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह से हाथ जोड़ कर अर्ज किया - ‘जिस वक्त सिद्धनाथ योगी ने मुझे आप लोगों को लाने के लिए भेजा था उस वक्त यह भी कह दिया था कि जब वे लोग इस खोह के पास पहुँच जाएँ, तब अगर हुक्म दें तो तुम उन लोगों को छोड़ कर पहले अकेले आ कर हमसे मिल जाना।, अब आप कहें तो योगी जी के कहे मुताबिक पहले मैं उनसे जा कर मिल आऊँ।’

महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह ने कहा - ‘योगी जी की बात जरूर माननी चाहिए, तुम जाओ उनसे मिल कर आओ, तब तक हमारा डेरा भी इसी जंगल में पड़ता है।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह अकेले सिर्फ तेजसिंह को साथ ले कर खोह में गए। जिस तरह हम पहले लिख आए हैं उसी तरह खोह का दरवाजा खोल कई कोठरियों, मकानों और बागों में घूमते हुए दोनों आदमी उस बाग में पहुँचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे या जिसमें कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार कुमार ने देखा था।

बाग के अंदर पैर रखते ही सिद्धनाथ योगी से मुलाकात हुई जो दरवाजे के पास पहले ही से खड़े कुछ सोच रहे थे। कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह को आते देख उनकी तरफ बढ़े और पुकार के बोले - ‘आप लोग आ गए?’

पहले दोनों ने दूर से प्रणाम किया और पास पहुँच कर उनकी बात का जवाब दिया -

कुमार - ‘आपके हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह और अपने पिता को खोह के बाहर छोड़ कर आपसे मिलने आया हूँ।’

सिद्धनाथ – ‘बहुत अच्छा किया जो उन लोगों को ले आए, आज कुमारी चंद्रकांता से आप लोग जरूर मिलोगे।’

तेजसिंह – ‘आपकी कृपा है तो ऐसा ही होगा।’

सिद्धनाथ – ‘कहो और तो सब कुशल है? विजयगढ़ और नौगढ़ में किसी तरह का उत्पात तो नहीं हुआ था।’

तेजसिंह - (ताज्जुब से उनकी तरफ देख कर) ‘हाँ, उत्पात तो हुआ था, कोई जालिम खाँ, नामी दोनों राजाओं का दुश्मन पैदा हुआ था।’

सिद्धनाथ – ‘हाँ, यह तो मालूम है, बेशक पंडित बद्रीनाथ अपने फन में बड़ा उस्ताद है, अच्छी चालाकी से उसे गिरफ्तार किया। खूब हुआ जो वे लोग मारे गए, अब उनके संगी-साथियों का दोनों राजों से दुश्मनी करने का हौसला न पड़ेगा। आओ टहलते-टहलते हम लोग बात करें।’

कुमार - ‘बहुत अच्छा।’

तेजसिंह – ‘जब आपको यह सब मालूम है तो यह भी जरूर मालूम होगा कि जालिम खाँ कौन था?’

सिद्धनाथ – ‘यह तो नहीं मालूम कि वह कौन था मगर अंदाज से मालूम होता है कि शायद नाजिम और अहमद के रिश्तेदारों में से कोई होगा।’

कुमार - ‘ठीक है, जो आप सोचते हैं वही होगा।’

सिद्धनाथ – ‘महाराज शिवदत्त तो जंगल में चले गए?’

कुमार - ‘जी हाँ, वे तो हमारे पिता से कह गए हैं कि अब तपस्या करेंगे।’

सिद्धनाथ – ‘जो हो मगर दुश्मन का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए।’

कुमार - ‘क्या वह फिर दुश्मनी पर कमर बाँधेगे ?’

सिद्धनाथ – ‘कौन ठिकाना?’

कुमार - ‘अब हुक्म हो तो बाहर जा कर अपने पिता और महाराज जयसिंह को ले आऊँ।’

सिद्धनाथ – ‘हाँ, पहले यह तो सुन लो कि हमने तुमको उन लोगों से पहले क्यों बुलाया।

कुमार - ‘कहिए।’

सिद्धनाथ – ‘कायदे की बात यह है कि जिस चीज को जी बहुत चाहता है अगर वह खो गई हो और बहुत मेहनत करने या बहुत हैरान होने पर यकायक ताज्जुब के साथ मिल जाए, तो उसका चाहने वाला उस पर इस तरह टूटता है जैसे अपने शिकार पर भूखा बाज। यह हम जानते हैं कि चंद्रकांता और तुममें बहुत ज्यादा मुहब्बत है, अगर यकायक दोनों राजाओं के सामने तुम उसे देखोगे या वह तुम्हें देखेगी तो ताज्जुब नहीं कि उन लोगों के सामने तुमसे या कुमारी चंद्रकांता से किसी तरह की बेअदबी हो जाए या जोश में आ कर तुम उसके पास ही जा खड़े हो तो भी मुनासिब न होगा। इसलिए मेरी राय है कि उन लोगों के पहले ही तुम कुमारी से मुलाकात कर लो। आओ हमारे साथ चले आओ।

अहा, इस वक्त तो कुमार के दिल की हुई। मुद्दत के बाद सिद्धनाथ बाबा की कृपा से आज उस कुमारी चंद्रकांता से मुलाकात होगी जिसके वास्ते दिन-रात परेशान थे, राजपाट जिसकी एक मुलाकात पर न्यौछावर कर दिया था, जान तक से हाथ धो बैठे थे। आज यकायक उससे मुलाकात होगी - सो भी ऐसे वक्त पर जब किसी तरह का खुटका नहीं, किसी तरह का रंज या अफसोस नहीं, कोई दुश्मन बाकी नहीं। ऐसे वक्त में कुमार की खुशी का क्या कहना। कलेजा उछलने लगा। मारे खुशी के सिद्धनाथ योगी की बात का जवाब तक न दे सके और उनके पीछे-पीछे रवाना हो गए।

थोड़ी दूर कमरे की तरफ गए होंगे कि एक लौंडी फूल तोड़ती हुई नजर पड़ी जिसे बुला कर सिद्धनाथ ने कहा - ‘तू अभी चंद्रकांता के पास जा और कह कि कुँवर वीरेंद्रसिंह तुमसे मुलाकात करने आ रहे हैं, तुम अपनी सखियों के साथ अपने कमरे में जा कर बैठो।’

यह सुनते ही वह लौंडी दौड़ती हुई एक तरफ चली गई और सिद्धनाथ कुमार तथा तेजसिंह को साथ ले बाग में इधर-उधर घूमने लगे। कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह दोनों अपनी-अपनी फिक्र में लग गए। तेजसिंह को चपला से मिलने की बड़ी खुशी थी। दोनों यह सोचने लगे कि किस हालत में मुलाकात होगी, उससे क्या बातचीत करेंगे, क्या पूछेंगे, वह हमारी शिकायत करेगी तो क्या जवाब देंगे? इसी सोच में दोनों ऐसे लीन हो गए कि फिर सिद्धनाथ योगी से बात न की, चुपचाप बहुत देर तक योगी जी के पीछे-पीछे घूमते रह गए।

घूम-फिरकर इन दोनों को साथ लिए हुए सिद्धनाथ योगी उस कमरे के पास पहुँचे जिसमें कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार देखा था। वहाँ पर सिद्धनाथ ने कुमार की तरफ देख कर कहा - ‘जाओ इस कमरे में कुमारी चंद्रकांता और उसकी सखियों से मुलाकात करो, मैं तब तक दूसरा काम करता हूँ।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह उस कमरे में अंदर गए। दूर से कुमारी चंद्रकांता को चपला और चंपा के साथ खड़े दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देखा।

देखते ही कुँवर वीरेंद्रसिंह, कुमारी की तरफ झपटे और चंद्रकांता कुमार की तरफ। अभी एक-दूसरे से कुछ दूर ही थे कि दोनों जमीन पर गिर कर बेहोश हो गए।

तेजसिंह और चपला की भी आपस में टकटकी बँध गई। बेचारी चंपा, कुँवर वीरेंद्रसिंह और कुमारी चंद्रकांता की यह दशा देख दौड़ी हुई दूसरे कमरे में गई और हाथ में बेदमुश्क के अर्क से भरी हुई सुराही और दूसरे हाथ में सूखी चिकनी मिट्टी का ढेला ले कर दौड़ी हुई आई।

दोनों के मुँह पर अर्क का छींटा दिया और थोड़ा-सा अर्क उस मिट्टी के ढेले पर डाल कर हलका लखलखा बना कर दोनों को सुँघाया।

कुछ देर बाद तेजसिंह और चपला की भी टकटकी टूटी और ये भी कुमार और चंद्रकांता की हालत देख उनको होश में लाने की फिक्र करने लगे।

कुँवर वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता दोनों होश में आए, दोनों एक-दूसरे की तरफ देखने लगे, मुँह से बात किसी के नहीं निकलती थी। क्या पूछें, कौन-सी शिकायत करें, किस जगह से बात उठाएँ, दोनों के दिल में यही सोच था। पेट से बात निकलती थी मगर गले में आ कर रुक जाती थी, बातों की भरावट से गला फूलता था, दोनों की आँखें डबडबा आईं थीं बल्कि आँसू की बूँदे बाहर गिरने लगीं।

घंटों बीत गए, देखा-देखी में ऐसे लीन हुए कि दोनों को तन-बदन की सुधा न रही। कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं, सामने कौन है, इसका ख्याल तक किसी को नहीं।

कुँवर वीरेंद्रसिंह और कुमारी चंद्रकांता के दिल का हाल अगर कुछ मालूम है तो तेजसिंह और चपला को, दूसरा कौन जाने, कौन उनकी मुहब्बत का अंदाजा कर सके, सो वे दोनों भी अपने आपे में नहीं थे। हाँ, बेचारी चंपा इन लोगो का हद दर्जे तक पहुँचा हुआ प्रेम देख कर घबरा उठी, जी में सोचने लगी कि कहीं ऐसा न हो कि इसी देखा-देखी में इन लोगों का दिमाग बिगड़ जाए। कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए कि जिससे इनकी यह दशा बदले और आपस में बातचीत करने लगे। आखिर कुमारी का हाथ पकड़ चंपा बोली - ‘कुमारी, तुम तो कहती थीं कि कुमार जिस रोज मिलेंगे उनसे पूछूँगी कि वनकन्या किसका नाम रखा था? वह कौन औरत है? उससे क्या वादा किया है? अब किसके साथ शादी करने का इरादा है? क्या वे सब बातें भूल गईं, अब इनसे न कहोगी?’

किसी तरह किसी की लौ तभी तक लगी रहती है जब तक कोई दूसरा आदमी किसी तरह की चोट उसके दिमाग पर न दे और उसके ध्यान को छेड़ कर न बिगाड़े, इसीलिए योगियों को एकांत में बैठना कहा है। कुँवर वीरेंद्रसिंह और कुमारी चंद्रकांता की मुहब्बत बाजारू न थी, वे दोनों एक रूप हो रहे थे, दिल ही दिल में अपनी जुदाई का सदमा एक ने दूसरे से कहा और दोनों समझ गए मगर किसी पास वाले को मालूम न हुआ, क्योंकि जुबान दोनों की बंद थी। हाँ, चंपा की बात ने दोनों को चौंका दिया, दोनों की चार आँखें जो मिल-जुल कर एक हो रही थीं हिल-डुल कर नीचे की तरफ हो गईं और सिर नीचा किए हुए दोनों कुछ-कुछ बोलने लगे। क्या जाने वे दोनों क्या बोलते थे और क्या समझते, उनकी वे ही जानें। बे-सिर-पैर की, टूटी-फूटी पागलों की-सी बातें कौन सुने, किसके समझ में आएँ। न तो कुमारी चंद्रकांता को कुमार से शिकायत करते बनी और न कुमार उनकी तकलीफ पूछ सके।

वे दोनों पहर आमने-सामने बैठे रहते तो शायद कहीं जुबान खुलती, मगर यहाँ दो घंटे बाद सिद्धनाथ योगी ने दोनों को फिर अलग कर दिया। लौंडी ने बाहर से आ कर कहा - ‘कुमार, आपको सिद्धनाथ बाबा जी ने बहुत जल्द बुलाया है, चलिए देर मत कीजिए।’

कुमार की यह मजाल न थी कि सिद्धनाथ योगी की बात टालते, घबरा कर उसी वक्त चलने को तैयार हो गए। दोनों के दिल-की-दिल ही में रह गई।

कुमारी चंद्रकांता को उसी तरह छोड़ कुमार उठ खड़े हुए, कुमारी को कुछ कहा ही चाहते थे, तब तक दूसरी लौंडी ने पहुँच कर जल्दी मचा दी। आखिर कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह उस कमरे के बाहर आए। दूर से सिद्धनाथ बाबा दिखाई पड़े, जिन्होंने कुमार को अपने पास बुला कर कहा - ‘कुमार, हमने तुमको यह नहीं कहा था कि दिन भर चंद्रकांता के पास बैठे रहो। दोपहर होने वाली है, जिन लोगों को खोह के बाहर छोड़ आए हो वे बेचारे तुम्हारी राह देखते होंगे।’

कुमार - ‘(सूरज की तरफ देख कर) जी हाँ दिन तो... ।’

बाबा - ‘दिन तो क्या?’

कुमार - (सकपकाए-से हो कर) ‘देर तो जरूर कुछ हो गई, अब हुक्म हो तो जा कर अपने पिता और महाराज जयसिंह को जल्दी से ले आऊँ?’

बाबा – ‘हाँ जाओ, उन लोगों को यहाँ ले आओ। मगर मेरी तरफ से दोनों राजाओं को कह देना कि इस खोह के अंदर उन्हीं लोगों को अपने साथ लाएँ जो कुमारी चंद्रकांता को देख सकें या जिसके सामने वह हो सके।’

कुमार - ‘बहुत अच्छा।’

बाबा – ‘जाओ अब देर न करो।’

कुमार - ‘प्रणाम करता हूँ।’

बाबा – ‘इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि आज ही तुम फिर लौटोगे।’

तेजसिंह – ‘दंडवत।’

बाबा – ‘तुमको तो जन्म भर दंडवत करने का मौका मिलेगा, मगर इस वक्त इस बात का ख्याल रखना कि तुम लोगों की जबानी कुमारी से मिलने का हाल खोह के बाहर वाले न सुनें और आते वक्त अगर दिन थोड़ा रहे तो आज मत आना।’

तेजसिंह – ‘जी नहीं हम लोग क्यों कहने लगे।’

बाबा – ‘अच्छा जाओ।’

दोनों आदमी सिद्धनाथ बाबा से विदा हो, उसी मालूमी राह से घूमते-फिरते खोह के बाहर आए।

बयान – 18

दिन दोपहर से कुछ ज्यादा जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान-पूजा कुछ नहीं की थी।

लश्कर में जा कर कुमार राजा सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि बाबा जी ने तुमको सबसे पहले क्यों बुलाया था? इसके जवाब में जो कुछ मुनासिब समझा, कह कर दोनों अपने-अपने डेरे में आए और स्नान-पूजा करके भोजन किया।

राजा सुरेंद्रसिंह तथा महाराज जयसिंह एकांत में बैठ कर इस बात की सलाह करने लगे कि हम लोग अपने साथ किस-किस को खोह के अंदर ले चलें।

सुरेंद्र – ‘योगी जी ने कहला भेजा है कि उन्हीं लोगों को अपने साथ खोह में लाओ जिनके सामने कुमारी आ सके।’

जयसिंह – ‘हम-आप, कुमार और तेजसिंह तो जरूर ही चलेंगे। बाकी जिस-जिसको आप चाहें ले चलें?’

सुरेंद्र – ‘बहुत आदमियों को साथ ले चलने की कोई जरूरत नहीं, हाँ ऐयारों को जरूर ले चलना चाहिए क्योंकि इन लोगों से किसी किस्म का पर्दा रह नहीं सकता, बल्कि ऐयारों से पर्दा रखना ही मुनासिब नहीं।’

जयसिंह – ‘आपका कहना ठीक है, इन ऐयारों के सिवाय और कोई इस लायक नहीं कि जिसे अपने साथ खोह में ले चले।’

बातचीत और राय पक्की करते हुए दिन थोड़ा रह गया, सुरेंद्रसिंह ने तेजसिंह को उसी जगह बुला कर पूछा – ‘यहाँ से चल कर बाबा जी के पास पहुँचने तक राह में कितनी देर लगती है?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘अगर इधर-उधर ख्याल न करके सीधे ही चलें तो पाँच-छः घड़ी में उस बाग तक पहुँचेंगे जिसमें बाबा जी रहते हैं, मगर मेरी राय इस वक्त वहाँ चलने की नहीं है क्योंकि दिन बहुत थोड़ा रह गया है और इस खोह में बड़े बेढब रास्ते से चलना होगा। अगर अँधेरा हो गया तो एक कदम आगे चल नहीं सकेंगे।’

कुमारी को देखने के लिए महाराज जयसिंह बहुत घबरा रहे थे मगर इस वक्त तेजसिंह की राय उनको कबूल करनी पड़ी और दूसरे दिन सुबह को खोह में चलने की ठहरी।

बयान - 19

बहुत सवेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आए। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जा कर तो इन लोगों की और ही कैफियत हो गई, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।

घुमाते-फिराते कई ताज्जुब की चीजों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सभी को साथ लिए हुए तेजसिंह उस बाग के दरवाजे पर पहुँचे, जिसमें सिद्धनाथ रहते थे। इन लोगों के पहुँचने के पहले ही से सिद्धनाथ इस्तकबाल (अगुवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।

तेजसिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह को उँगली के इशारे से बता कर कहा - ‘देखिए सिद्धनाथ बाबा दरवाजे पर खड़े हैं।’

दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुँच कर बाबा जी को दंडवत करें मगर इसके पहले ही बाबा जी ने पुकार कर कहा - ‘खबरदार, मुझे कोई दंडवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।’

इरादा करते रह गए, किसी की मजाल न हुई कि दंडवत करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह हैरान थे कि बाबा जी ने दंडवत करने से क्यों रोका। पास पहुँच कर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबा जी ने इसे भी मंजूर न करके कहा - ‘महाराज, मैं इस लायक नहीं, आपका दर्जा मुझसे बहुत बड़ा है।’

सुरेंद्र – ‘साधुओं से बढ़ कर किसी का दर्जा नहीं हो सकता।’

बाबा जी - आपका कहना बहुत ठीक है, मगर आपको मालूम नहीं कि मैं किस तरह का साधु हूँ।’

सुरेंद्र – ‘साधु चाहे किसी तरह का हो पूजने ही योग्य है।’

बाबा जी – ‘किसी तरह का हो, मगर साधु हो तब तो।’

सुरेंद्र – ‘तो आप कौन हैं?’

बाबा जी – ‘कोई भी नहीं।’

जयसिंह – ‘आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आतीं और हर बात ताज्जुब, आश्चर्य, सोच और घबराहट बढ़ाती है।’

बाबा जी - (हँस कर) ‘अच्छा आइए इस बाग में चलिए।’

सभी को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अंदर गए।

पाठक, घड़ी-घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल-बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूँ। सिवाय इसके इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे-चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएँ, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी-चढ़ी है।

महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह, कुमार वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबा जी उसी दीवानखाने में पहुँचे, जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था, बल्कि ऐसा क्यों नहीं कहते कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चंद्रकांता से मिले थे। जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबा जी ने उसी पर राजा सुरेंद्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुँवर वीरेंद्रसिंह को बिठा कर उनके दोनों तरफ दर्जे-ब-दर्जे ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गए जो पहले ही बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।

बाबा जी - (महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की तरफ देख कर) ‘आप लोग कुशल से तो हैं।’

दोनों राजा – ‘आपकी कृपा से बहुत आनंद है, और आज तो आपसे मिल कर बहुत प्रसन्नता हुई।’

बाबा जी – ‘आप लोगों को यहाँ तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजिएगा।’

जयसिंह – ‘यहाँ आने के ख्याल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहाँ तक आने की नौबत न पहुँचती तो, न मालूम कब तक कुमारी चंद्रकांता के वियोग का दु:ख हम लोगों को सहना पड़ता।’

बाबा जी - (मुस्कराकर) ‘अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठाएँगे।’

जयसिंह – ‘आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को जरूर देखेंगे।’

बाबा जी – ‘शायद किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सकें तो कल जरूर आप लोग उससे मिलेंगे। इस वक्त आप लोग स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे आपके बीच बातचीत होगी।’

बाबा जी ने एक लौंडी को बुला कर कहा – ‘हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावड़ी है।’

बाबा जी सभी को लिए उस बाग में गए जिसमें बावड़ी थी। उसी में सभी ने स्नान किया और उत्तर तरफ वाले दालान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुँवर वीरेंद्रसिंह की आँख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसा पहले दिन कुमार ने देखा था, हाँ इतना फर्क है कि आज कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर उसमें नहीं है।

जब सब लोग निश्चित होकर बैठ गए तब राजा सुरेंद्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा - ‘यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे-छोटे कई बाग हैं, हमारे ही इलाके में है मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुँची। क्या इस बाग से ऊपर-ही-ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?’

बाबा जी – ‘इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहाँ कोई आ नहीं सकता था, हाँ जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है, वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही है जिससे आप आए हैं, दूसरी राह बाहर आने-जाने की इस बाग में से है, लेकिन वह उससे भी ज्यादा छिपी हुई है।’

सुरेंद्र – ‘आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं।’

बाबा जी – ‘मैं बहुत थोड़े दिनों से इस खोह में आया हूँ। सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूँ।’

सुरेंद्र - (ताज्जुब से) ‘आप किसके नौकर हैं?’

बाबा जी – ‘यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जाएगा।’

जयसिंह - (सुरेंद्रसिंह की तरफ इशारा करके) ‘महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी नहीं मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहाँ के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुंदर-सुंदर मकानों और बागीचों का मालिक कौन है?’

महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियाँ और पीछे-पीछे दस-पंद्रह लौंडियों की भीड़ थीं।

बाबा जी - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) ‘इस जगह की मालिक यही हैं।’

सिद्धनाथ बाबा की बात सुन कर दोनों महाराज और ऐयार लोग, ताज्जुब से वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह भी हैरान हो वनकन्या की तरफ देख रहे थे। सिद्धनाथ की जुबानी यह सुन कर कि इस जगह की मालिक यही है, कुमार और तेजसिंह को पिछली बातें याद आ गईं। कुँवर वीरेंद्रसिंह सिर नीचा कर सोचने लगे कि बेशक कुमारी चंद्रकांता, इसी वनकन्या की कैद में है। वह बेचारी तिलिस्म की राह से आ कर जब इस खोह में फँसी तब इन्होंने कैद कर लिया, तभी तो इस जोर की खत लिखा था कि बिना हमारी मदद के तुम कुमारी चंद्रकांता को नहीं देख सकते, और उस दिन सिद्धनाथ बाबा ने भी यही कहा था कि जब यह चाहेगी तब चंद्रकांता से तुमसे मुलाकात होगी। बेशक कुमारी को इसी ने कैद किया है, हम इसे अपना दोस्त कभी नहीं कह सकते, बल्कि यह हमारी दुश्मन है क्योंकि इसने बेफायदे कुमारी चंद्रकांता को कैद करके तकलीफ में डाला और हम लोगों को भी परेशान किया।

नीचे मुँह किए इसी किस्म की बातें सोचते-सोचते कुमार को गुस्सा चढ़ आया और उन्होंने सिर उठा कर वनकन्या की तरफ देखा।

कुमार के दिल में चंद्रकांता की मुहब्बत चाहे कितनी ही ज्यादा हो मगर वनकन्या की मुहब्बत भी कम न थी। हाँ इतना फर्क जरूर था कि जिस वक्त कुमारी चंद्रकांता की याद में मग्न होते थे उस वक्त वनकन्या का ख्याल भी जी में नहीं आता था, मगर सूरत देखने से मुहब्बत की मजबूत फाँसें गले में पड़ जाती थीं। इस वक्त भी उनकी यही दशा हुई। यह सोच कर कि कुमारी को इसने कैद किया है एकदम गुस्सा चढ़ आया मगर कब तक? जब तक कि जमीन की तरफ देख कर सोचते रहे, जहाँ सिर उठा कर वनकन्या की तरफ देखा, गुस्सा बिल्कुल जाता रहा, ख्याल ही दूर हो गए, पहले कुछ सोचा था अब कुछ और ही सोचने लगे - ‘नहीं-नहीं, यह बेचारी हमारी दुश्मन नहीं है। राम-राम, न मालूम क्यों ऐसा ख्याल मेरे दिल में आ गया। इससे बढ़ कर तो कोई दोस्त दिखाई ही नहीं देता। अगर यह हमारी मदद न करती तो तिलिस्म का टूटना मुश्किल हो जाता, कुमारी के मिलने की उम्मीद जाती रहती, बल्कि मैं खुद दुश्मनों के हाथ पड़ जाता।’

कुमार क्या, सभी के ही दिल में एकदम यह बात पैदा हुई कि इस बाग और पहाड़ी की मालिक अगर यह है तो इसी ने कुमारी को भी कैद कर रखा होगा।

आखिर महाराज जयसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देख कर पूछा - ‘बेचारी चंद्रकांता इस खोह में फँस कर इन्हीं की कैद में पड़ गई होगी?’

बाबा जी – ‘नहीं, जिस वक्त कुमारी चंद्रकांता इस खोह में फँसी थी उस वक्त यहाँ का मालिक कोई न था, उसके बाद यह पहाड़ी बाग और मकान इनको मिला है।’

सिद्धनाथ बाबा की इस दूसरी बात ने और भ्रम में डाल दिया, यहाँ तक कि कुमार का जी घबराने लगा। अगर महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह यहाँ न होते तो जरूर कुमार चिल्ला उठते, मगर नहीं - शर्म ने मुँह बंद कर दिया और गंभीरता ने दोनों मोढ़ों पर हाथ धर कर नीचे की तरफ दबाया।

महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखा और गिड़गिड़ा कर बोले - ‘आप कृपा कर के पेचीदी बातों को छोड़ दीजिए और साफ कहिए कि यह लड़की जो सामने खड़ी है कौन है, यह पहाड़ी इसे किसने दी और चंद्रकांता कहाँ है?’

महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह की बात सुन कर बाबा जी मुस्कुराने लगे और वनकन्या की तरफ देख इशारे से उसे अपने पास बुलाया। वनकन्या अपनी अगल-बगल वाली दोनों सखियों को जिनमें से एक की पोशाक सुर्ख और दूसरी की सब्ज थी, साथ लिए हुए सिद्धनाथ के पास आई। बाबा जी ने उसके चेहरे पर से एक झिल्ली जैसी कोई चीज जो तमाम चेहरे के साथ चिपकी हुई थी खींच ली और हाथ पकड़ कर महाराज जयसिंह के पैर पर डाल दिया और कहा - ‘लीजिए यही आपकी चंद्रकांता है।’

चेहरे पर की झिल्ली उतर जाने से सबों ने कुमारी चंद्रकांता को पहचान लिया, महाराज जयसिंह पैर से उसका सिर उठा कर देर तक अपनी छाती से लगाए रहे और खुशी से गद्गद् हो गए।

सिद्धनाथ योगी ने उसकी दोनों सखियों के मुँह पर से भी झिल्ली उतार दी। लाल पोशाक वाली चपला और सब्ज पोशाक वाली चंपा साफ पहचानी गईं। मारे खुशी के सबों का चेहरा चमक उठा, आज की-सी खुशी कभी किसी ने नहीं पाई थी। महाराज जयसिंह के इशारे से कुमारी चंद्रकांता ने राजा सुरेंद्रसिंह के पैर पर सिर रखा, उन्होंने उसका सिर उठा कर चूमा।

घंटों तक मारे खुशी के सभी की अजब हालत रही।

कुँवर वीरेंद्रसिंह की दशा तो लिखनी ही मुश्किल है। अगर सिद्धनाथ योगी इनको पहले ही कुमारी से न मिलाए रहते तो इस समय इनको शर्म और हया कभी न दबा सकती, जरूर कोई बेअदबी हो जाती।

महाराज जयसिंह की तरफ देख कर सिद्धनाथ बाबा बोले - ‘आप कुमारी को हुक्म दीजिए कि अपनी सखियों के साथ घूमे-फिरे या दूसरे कमरे में चली जाए और आप लोग इस पहाड़ी और कुमारी का विचित्र हाल मुझसे सुनें।’

जयसिंह – ‘बहुत दिनों के बाद इसकी सूरत देखी है, अब कैसे अपने से अलग करूँ, कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई आफत आए और इसको देखना मुश्किल हो जाए।’

बाबा जी - (हँस कर) ‘नहीं, नहीं, अब यह आपसे अलग नहीं हो सकती।’

जयसिंह – ‘खैर, जो हो, इसे मुझसे अलग मत कीजिए और कृपा करके इसका हाल शुरू से कहिए।’

बाबा जी – ‘अच्छा, जैसी आपकी मर्जी।’

बयान - 20

महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकांता का हाल कहना शुरू किया।

बाबा जी – ‘मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा-सा तिलिस्म है और चुनारगढ़ के इलाके में भी कोई तिलिस्म है। जिसके हाथ से वह तिलिस्म टूटेगा उसकी शादी जिसके साथ होगी उसी के दहेज के सामान पर यह तिलिस्म बँधा है और शादी होने के पहले ही वह इसकी मालिक होगी।’

सुरेंद्र – ‘पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है?’

बाबा जी – ‘तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल-खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे-अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्म-पत्री लिख कर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी-अच्छी कीमती चीजों को रख कर उस पर तिलिस्म बाँधते हैं।

आजकल तो तिलिस्म बाँधने का यह कायदा है कि थोड़ा-बहुत खजाना रख कर उसकी हिफाजत के लिए दो-एक बलि दे देते हैं, वह प्रेत या साँप हो कर उसकी हिफाजत करता है और कहे हुए आदमी के सिवाय दूसरे को एक पैसा लेने नहीं देता, मगर पहले यह कायदा नहीं था। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बाँधने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े-बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बाँधने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रख कर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनाई जाती थी। उसमें ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर साथ ही इसके उस आदमी के नक्षत्र और ग्रहों का भी ख्याल रखते थे जिसके लिए वह खजाना रखा जाता था। कुँवर वीरेंद्रसिंह ने एक छोटा-सा तिलिस्म तोड़ा है, उनकी जुबानी आप वहाँ का हाल सुनिए और हर एक बात को खूब गौर से सोचिए तो आप ही मालूम हो जाएगा कि ज्योतिषी, नजूमी, कारीगर और दर्शन-शास्त्र के जानने वाले क्या काम कर सकते थे।

जयसिंह – ‘खैर, इसका हाल कुछ-कुछ मालूम हो गया, बाकी कुमार की जुबानी तिलिस्म का हाल सुनने और गौर करने से मालूम हो जाएगा। अब आप इस पहाड़ी और मेरी लड़की का हाल कहिए और यह भी कहिए कि महाराज शिवदत्त इस खोह से क्यों कर निकल भागे और फिर क्यों कर कैद हो गए?’

बाबा जी – ‘सुनिए मैं बिल्कुल हाल आपसे कहता हूँ। जब कुमारी चंद्रकांता चुनारगढ़ के तिलिस्म में फँस कर इस खोह में आईं तो दो दिनों तक तो इस बेचारी ने तकलीफ से काटे। तीसरे रोज खबर लगने पर मैं यहाँ पहुँचा और कुमारी को उस जगह से छुड़ाया जहाँ वह फँसी हुई थी और जिसको मैं आप लोगों को दिखाऊँगा।’

सुरेंद्र – ‘सुनते हैं तिलिस्म तोड़ने में ताकत की भी जरूरत पड़ती है?’

बाबा जी – ‘यह ठीक है, मगर इस तिलिस्म में कुमारी को कुछ भी तकलीफ न हुई और न ताकत की जरूरत पड़ी, क्योंकि इसका लगाव उस तिलिस्म से था, जिसे कुमार ने तोड़ा है। वह तिलिस्म या उसके कुछ हिस्से अगर न टूटते तो यह तिलिस्म भी न खुलता।’

कुमार - (सिद्धनाथ की तरफ देख कर) ‘आपने यह तो कहा ही नहीं कि कुमारी के पास किस राह से पहुँचे? हम लोग जब इस खोह में आए थे और कुमारी को बेबस देखा था, तब बहुत सोचने पर भी कोई तरकीब ऐसी न मिली थी जिससे कुमारी के पास पहुँच कर इन्हें उस बला से छुड़ाते।’

बाबा जी – ‘सिर्फ सोचने से तिलिस्म का हाल नहीं मालूम हो सकता है। मैं भी सुन चुका था कि इस खोह में कुमारी चंद्रकांता फँसी पड़ी है और आप छुड़ाने की फिक्र कर रहे हैं मगर कुछ बन नहीं पड़ता। मैं यहाँ पहुँच कर कुमारी को छुड़ा सकता था लेकिन यह मुझे मंजूर न था, मैं चाहता था कि यहाँ का माल-असबाब कुमारी के हाथ लगे।’

कुमार - ‘आप योगी हैं, योगबल से इस जगह पहुँच सकते हैं, मगर मैं क्या कर सकता था।’

बाबा जी – ‘आप लोग इस बात को बिल्कुल मत सोचिए कि मैं योगी हूँ, जो काम आदमी के या ऐयारों के किए नहीं हो सकता उसे मैं भी नहीं कर सकता। मैं जिस राह से कुमारी के पास पहुँचा और जो-जो किया सो कहता हूँ, सुनिए।’

बयान - 21

सिद्धनाथ योगी ने कहा - ‘पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुँचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चंद्रकांता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे-छोटे बाग हैं जिनका रास्ता उस चश्मे में से है जो खोह में बह रहा है, खोह के अंदर आने पर आप लोगों ने उसे जरूर देखा होगा, क्योंकि खो में उस चश्मे की खूबसूरती भी देखने के काबिल है।’

सिद्धनाथ की इतनी बात सुन कर सभी ने ‘हूँ-हाँ’ कह के सिर हिलाया। इसके बाद सिद्धनाथ योगी कहने लगे – ‘मैं लंगोटी बाँध कर चश्मे में उतर गया और इधर से उधर और उधर से इधर घूमने लगा। यकायक पूरब तरफ जल के अंदर एक छोटा-सा दरवाजा मालूम हुआ, गोता लगा कर उसके अंदर घुसा। आठ-दस हाथ तक बराबर जल मिला इसके बाद धीरे-धीरे जल कम होने लगा, यहाँ तक कि कमर तक जल हुआ। तब मालूम पड़ा कि यह कोई सुरंग है जिसमें चढ़ाई के तौर पर ऊँचे की तरफ चला जा रहा हूँ।

आधा घंटा चलने के बाद मैंने अपने को इस बाग में (जिसमें आप बैठे हैं) पश्चिम और उत्तर के कोण में पाया और घूमता-फिरता इस कमरे में पहुँचा, (हाथ से इशारा करके) यह देखिए दीवार में जो अलमारी है, असल में वह अलमारी नहीं दरवाजा है, लात मारने से खुल जाता है। मैंने लात मार कर यह दरवाजा खोला और इसके अंदर घुसा। भीतर बिल्कुल अंधकार था, लगभग दो सौ कदम जाने के बाद दीवार मिली। इसी तरह यहाँ भी लात मार कर दरवाजा खोला और ठीक उसी जगह पहुँचा जहाँ कुमारी चंद्रकांता और चपला बेबस पड़ी रो रही थीं। मेरे बगल से ही एक दूसरा रास्ता उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को गया था, जिसके एक टुकड़े को कुमार ने तोड़ा है।

मुझे देखते ही ये दोनों घबरा गईं। मैंने कहा – “तुम लोग डरो मत, मैं तुम दोनों को छुड़ाने आया हूँ।” यह कह कर जिस राह से मैं गया था, उसी राह से कुमारी चंद्रकांता और चपला को साथ ले इस बाग में लौट आया। इतना हाल, इतनी कैफियत, इतना रास्ता तो मैं जानता था, इससे ज्यादा इस खोह का हाल मुझे कुछ भी मालूम न था। कुमारी और चपला को खोह के बाहर कर देना या घर पहुँचा देना मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर मुझको यह मंजूर था कि यह छोटा-सा तिलिस्म कुमारी के हाथ से टूटे और यहाँ का माल-असबाब इनके हाथ लगे।

मैं क्या सभी कोई इस बात को जानते होंगे और सबों को यकीन होगा कि कुमारी चंद्रकांता को इस कैद से छुड़ाने के लिए ही कुमार चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को तोड़ रहे थे, माल-खजाने की इनको लालच न थी। अगर मैं कुमारी को यहाँ से निकाल कर आपके पास पहुँचा देता तो कुमार उस तिलिस्म को तोड़ना बंद कर देते और वहाँ का खजाना भी यों ही रह जाता। मैं आप लोगों की बढ़ती चाहने वाला हूँ। मुझे यह कब मंजूर हो सकता था कि इतना माल-असबाब बरबाद जाए और कुमार या कुमारी चंद्रकांता को न मिले।

मैंने अपने जी का हाल कुमारी और चपला से कहा और यह भी कहा कि अगर मेरी बात न मानोगी तो तुम्हें इसी बाग में छोड़ कर मैं चला जाऊँगा। आखिर लाचार हो कर कुमारी ने मेरी बात मंजूर की और कसम खाई कि मेरे कहने के खिलाफ कोई काम न करेगी।

मुझे यह तो मालूम ही न था कि यहाँ का माल-असबाब क्यों कर हाथ लगेगा, और इस खजाने की ताली कहाँ है, मगर यह यकीन हो गया कि कुमारी जरूर इस तिलिस्म की मालिक होगी। इसी फिक्र में दो रोज तक परेशान रहा। इन बागीचों की हालत बिल्कुल खराब थी, मगर दो-चार फलों के पेड़ ऐसे थे कि हम तीनों ने तकलीफ न पाई।

तीसरे दिन पूर्णिमा थी। मैं उस बावड़ी के किनारे बैठा कुछ सोच रहा था, कुमारी और चपला इधर-उधर टहल रही थीं, इतने में चपला दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली - ‘जल्दी चलिए, इस बाग में एक ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी है।’

मैं सुनते ही खड़ा हुआ और चपला के साथ वहाँ गया जहाँ कुमारी चंद्रकांता पूरब की दीवार तले खड़ी गौर से कुछ देख रही थी। मुझे देखते ही कुमारी ने कहा - ‘बाबा जी, देखिए इस दीवार की जड़ में एक सूराख है जिसमें से सफेद रंग की बड़ी-बड़ी चींटियाँ निकल रही हैं। यह क्या मामला है?’

मैंने अपने उस्ताद से सुना था कि सफेद चींटियाँ जहाँ नजर पड़ें समझना कि वहाँ जरूर कोई खजाना या खजाने की ताली है। यह ख्याल करके मैंने अपनी कमर से खंजर निकाल कुमारी के हाथ में दे दिया और कहा कि तुम इस जमीन को खोदो। अस्तु मेरे कहे मुताबिक कुमारी ने उस जमीन को खोदा। हाथ ही भर के बाद कांच की छोटी-सी हाँडी निकली जिसका मुँह बंद था। कुमारी के ही हाथ से वह हाँडी मैंने तूड़वाई। उसके भीतर किसी किस्म का तेल भरा हुआ था जो हाँडी टूटते ही बह गया और ताली का एक गुच्छा उसके अंदर से मिला जिसे पा कर मैं बहुत खुश हुआ।

दूसरे दिन कुमारी चंद्रकांता के हाथ में ताली का गुच्छा दे कर मैंने कहा – ‘चारों तरफ घूम-घूम कर देखो, जहाँ ताला नजर पड़े, इन तालियों में से किसी ताली को लगा कर खोलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।’

मुख्तसर ही में बयान करके इस बात को खत्म करता हूँ। उस गुच्छे में तीस तालियाँ थीं, कई दिनों में खोज कर हम लोगों ने तीसों ताले खोले। तीन दरवाजे तो ऐसे मिले, जिनसे हम लोग ऊपर-ऊपर इस तिलिस्म के बाहर हो जाएँ। चार बाग और तेईस कोठरियाँ असबाब और खजाने की निकलीं जिसमें हर एक किस्म का अमीरी का सामान और बेहद खजाना मौजूद था।

जब ऊपर-ही-ऊपर तिलिस्म से बाहर हो जाने का रास्ता मिला, तब मैं अपने घर गया और कई लौंडियाँ और जरूरी चीजें कुमारी के वास्ते ले कर फिर यहाँ आया। कई दिनों में यहाँ के सब ताले खोले गए, तब तक यहाँ रहते-रहते कुमारी की तबीयत घबरा गई, मुझसे कई दफा उन्होंने कहा – ‘मैं इस तिलिस्म के बाहर घूमान-फिराना चाहती हूँ।’

बहुत जिद करने पर मैंने इस बात को मंजूर किया। अपनी कारीगरी से इन लोगों की सूरत बदली और दो-तीन घोड़े भी ला दिए जिन पर सवार हो कर ये लोग कभी-कभी तिलिस्म के बाहर घूमने जाया करती। इस बात की ताकीद कर दी थी कि अपने को छिपाए रहें, जिससे कोई पहचानने न पाए। इन्होंने भी मेरी बात पूरे तौर पर मानी और जहाँ तक हो सका अपने को छिपाया। इस बीच में धीरे –धीरे में इन बागों की भी दुरुस्ती की गई।

कुँवर वीरेंद्रसिंह ने उस तिलिस्म का खजाना हासिल किया और यहाँ का माल-असबाब जो कुछ छिपा था, कुमारी को मिल गया। (जयसिंह की तरफ देख कर) आज तक यह कुमारी चंद्रकांता मेरी लड़की या मालिक थी, अब आपकी जमा आपके हवाले करता हूँ।

महाराज शिवदत्त की रानी पर रहम खा कर कुमारी ने दोनों को छोड़ दिया था और इस बात की कसम खिला दी थी कि कुमार से किसी तरह की दुश्मनी न करेंगे। मगर उस दुष्ट ने न माना, पुराने साथियों से मुलाकात होने पर बदमाशी पर कमर बाँधी और कुमार के पीछे लश्कर की तबाही करने लगा। आखिर लाचार हो कर मैंने उसे गिरफ्तार किया और इस खोह में उसी ठिकाने फिर ला रखा जहाँ कुमार ने उसे कैद करके डाल दिया था। अब और जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं सब हाल कह आप लोगों की शंका मिटाऊँ।’

सुरेंद्र – ‘पूछने को तो बहुत-सी बातें थीं मगर इस वक्त इतनी खुशी हुई है कि वे तमाम बातें भूल गया हूँ, क्या पूछूँ? खैर, फिर किसी वक्त पूछ लूँगा। कुमारी की मदद आपने क्यों की?’

जयसिंह – ‘हाँ यही सवाल मेरा भी है, क्योंकि आपका हाल जब तक नहीं मालूम होता तबीयत की घबराहट नहीं मिटती, इस पर आप कई दफा कह चुके हैं कि मैं योगी महात्मा नहीं हूँ, यह सुन कर हम लोग और भी घबरा रहे हैं कि अगर आप वह नहीं हैं जो सूरत से जाहिर है तो फिर कौन हैं।’

बाबा जी – ‘खैर, यह भी मालूम हो जाएगा।’

जयसिंह - (कुमारी चंद्रकांता की तरफ देख कर) ‘बेटी, क्या तुम भी नहीं जानतीं कि यह योगी कौन हैं?’

चंद्रकांता - (हाथ जोड़ कर) ‘मैं तो सब-कुछ जानती हूँ मगर कहूँ क्यों कर, इन्होंने तो मुझसे सख्त कसम खिला दी है, इसी से मैं कुछ भी नहीं कह सकती।’

बाबा जी – ‘आप जल्दी क्यों करते हैं। अभी थोड़ी देर में मेरा हाल भी आपको मालूम हो जाएगा, पहले चल कर उन चीजों को तो देखिए जो कुमारी चंद्रकांता को इस तिलिस्म से मिली हैं।’

जयसिंह – ‘जैसी आपकी मर्जी।’

बाबा जी उसी वक्त उठ खड़े हुए और सभी को साथ ले, दूसरे बाग की तरफ चले।

बयान - 22

बाबा जी यहाँ से उठ कर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुँचे और वहाँ घूम-फिर कर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था।

महाराज जयसिंह उन सब चीजों को देखते ही एकदम बोल उठे - ‘वाह-वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होने इतनी दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना बिल्कुल राज्य बेच कर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता।’

सबसे ज्यादा खजाना और जवाहिरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नजर पड़ा जहाँ कुँवर वीरेंद्रसिंह ने कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार देखा था।

तीसरे और चौथे भाग के शुरू में पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का कुछ हाल हम लिख चुके हैं। दो-तीन दिनों में सिद्ध बाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे उस वक्त महाराज जयसिंह ने सिद्ध बाबा से कहा - ‘आपने जो कुछ मदद कुमारी चंद्रकांता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल कह कर हम लोगों के आश्चर्य को दूर कीजिए, अब सब्र नहीं किया जाता।’

महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्ध बाबा मुस्कराकर बोले - ‘मैं भी अपना हाल आप लोगों पर जाहिर करता हूँ जरा सब्र कीजिए।’ इतना कह कर जोर से जफील (सीटी) बजाई। उसी वक्त तीन-चार लौंडियाँ दौड़ती हुई आ कर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धनाथ बाबा ने हुक्म दिया - ‘हमारे नहाने के लिए जल और पहनने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उँगली का इशारा करके) इस कोठरी में ला कर जल्द रखो। आज मैं इस मृगछाले और लंबी दाढ़ी को इस्तीफा दूँगा।’

थोड़ी ही देर में सिद्ध बाबा के हुक्म की तामील हो गई। तब तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उठ कर उस कोठरी में चले गए जिसमें उनके नहाने का जल और पहनने के कपड़े रखे हुए थे।

थोड़ी ही देर बाद नहा-धो और कपड़े पहन कर सिद्ध बाबा उस कोठरी के बाहर निकले। अब तो इनको सिद्ध बाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबा जी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेजसिंह के बाप जीतसिंह कहना ठीक है।

अब पूछने या हाल-चाल मालूम करने की फुरसत कहाँ। महाराज सुरेंद्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कहा – ‘तुम मेरे भाई से भी हजार दर्जे बढ़ के हो।’ गले लगा लिया और कहा – “जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पाँच सौ सवार ले कर कुमार की मदद की थी। आज तो तुमने कुमार से भी बढ़ कर नाम पैदा किया और पुश्तहापुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने अहसान का बोझ रखा।” देर तक गले लगाए रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्जा दे कर गले लगाया। तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने भी बड़ी खुशी से पूजा की।

अब मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकांता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले, आज तक अच्छे-अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुँवर वीरेंद्रसिंह को धोखे में डाल कर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोक कर जान बचाने और चुनारगढ़ राज्य में फतह का डंका बजाने वाले, सिद्धनाथ योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।

इस वक्त की खुशी का क्या अंदाजा है। अपने-अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे हैं कि त्रिभुवन की संपत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुँवर वीरेंद्रसिंह को कुमारी चंद्रकांता से मिलने की खुशी जैसी भी थी आप खुद ही सोच-समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का, सिद्धनाथ बाबा तो कुछ थे ही नहीं।

इस वक्त महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़-चढ़ रहा है वे ही जानते होंगे। कुमारी चंद्रकांता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक्त कुमारी चंद्रकांता के हाथ पकड़ के राजा सुरेंद्रसिंह के पैर पर डाल दिया और डबडबाई आँखों को पोंछ कर कहा - ‘आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊँ और जात-बिरादरी तथा पंडित लोगों के सामने कुँवर वीरेंद्रसिंह की लौंडी बनाऊँ।’

राजा सुरेंद्रसिंह ने कुमारी को अपने पैर से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगा कर कहा - ‘जहाँ तक जल्दी हो सके आप कुमारी को ले कर विजयगढ़ जाएँ क्योंकि इसकी माँ बेचारी मारे गम के सूख कर काँटा हो रही होगी।’

इसके बाद महाराज सुरेंद्रसिंह ने पूछा - ‘अब क्या करना चाहिए?’

जीतसिंह – ‘अब सभी को यहाँ से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहाँ से माल-असबाब और खजाने को ले चलने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अव्वल तो यह माल-असबाब सिवाय कुमारी चंद्रकांता के किसी के मतलब का नहीं, इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियाँ भी पहले से ही इनके कब्जे में रही हैं, यहाँ से उठा कर ले जाने और फिर इनके साथ भेज कर लोगों को दिखाने की कोई जरूरत नहीं, दूसरे यहाँ की आबोहवा कुमारी को बहुत पसंद है, जहाँ तक मैं समझता हूँ, कुमारी चंद्रकांता फिर यहाँ आ कर कुछ दिन जरूर रहेंगी, इसलिए हम लोगों को यहाँ से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चंद्रकांता को ले कर बाहर होना चाहिए।’

बहादुर और पूरे ऐयार जीतसिंह की राय को सभी ने पसंद किया और वहाँ से बाहर होकर नौगढ़ और विजयगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।

जीतसिंह ने कुल लौंडियों को जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिए वहाँ लाए थे, बुला के कहा - ‘तुम लोग अपने-अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को ले कर जल्द यहाँ आओ, जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मँगा रखी है।’

जीतसिंह का हुक्म पा कर वे लौंडियाँ जो गिनती में बीस होंगी दूसरे बाग में चली गईं और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कंधो पर लिए हाजिर हुईं। कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह ने अब इन लौंडियों को पहचाना।

तेजसिंह ने ताज्जुब में आ कर कहा - ‘वाह-वाह, अपने घर की लौंडियों को आज तक मैंने न पहचाना। मेरी माँ ने भी यह भेद मुझसे न कहा।’

बयान - 23

जिस राह से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह आया-जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आए थे, वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी, घोड़ा या पालकी पर सवार हो कर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने में कुछ चक्कर पड़ता था, इसलिए जीतसिंह ने कुमारी के वास्ते पालकी मँगाई मगर दोनों महाराज और कुँवर वीरेंद्रसिंह किस पर सवार होंगे, अब वे सोचने लगे।

वहाँ खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाए गए थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मँगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।

उसी बाग के दक्खिन तरफ एक बड़ा फाटक था, जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियाँ थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुँचे और उसकी दाहिनी आँख में उँगली डाली, साथ ही उसका पेट दो पल्ले की तरह खुल गया और बीच में चाँदी का एक मुट्ठा नजर पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया।

जैसे-जैसे मुट्ठा घुमाते थे वैसे-वैसे वह फाटक जमीन में घुसता जाता था। यहाँ तक कि तमाम फाटक जमीन के अंदर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्ज से भरा हुआ मैदान नजर पड़ा।

फाटक खुलने के बाद जीतसिंह फिर इन लोगों के पास आ कर बोले - ‘इसी राह से हम लोग बाहर चलेंगे।’

दिन आधी घड़ी से ज्यादा न बीता होगा, जब महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चंद्रकांता की पालकी आगे कर फाटक के बाहर हुए। दोनों महाराजों के बीच में दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुँवर वीरेंद्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।

पहर भर चलने के बाद ये लोग उस लश्कर में पहुँचे जो खोह के दरवाजे पर उतरा हुआ था। रात-भर उसी जगह रह कर सुबह को कूच किया। यहाँ से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहन कर कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए मगर वे लौंडियाँ भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहाँ तक कि उनकी पालकी उठा कर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेंद्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गई।

राजा सुरेंद्रसिंह कुमार को साथ लिए हुए नौगढ़ पहुँचे। कुँवर वीरेंद्रसिंह पहले महल में जा कर अपनी माँ से मिले और कुलदेवी की पूजा करके बाहर आए।

अब तो बड़ी खुशी से दिन गुजरने लगे, आठवें ही रोज महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुँचा और बड़ी धुमधाम से वीरेंद्रसिंह को चढ़ाया गया।

पाठक, अब तो कुँवर वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता का वृत्तांत समाप्त ही हुआ समझिए। बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी। इस वक्त तक सब किस्से को मुख्तसर लिख कर सिर्फ बारात के लिए कई वर्क कागज के रँगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखना चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, केवड़े के जल से छिड़काव किया गया, दोनों तरफ बिल्लौरी हाँडियाँ रोशन की गईं, इत्यादि। आप खुद ख्याल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक-माशूक की बारात किस धुमधाम की होगी, इस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की एक-एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल-खजाना पाने की खुशी ने और दिमाग बढ़ा रखा था। मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसंद करता हूँ कि अच्छी सायत में कुँवर वीरेंद्रसिंह की बारात बड़े धूमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।

विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी-चढ़ी थी। बारात पहुँचने के पहले ही समा बँधा हुआ था, अच्छी-अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रंडियों से महफिल भरी हुई थी, मगर जिस वक्त बारात पहुँची, अजब झमेला मचा।

बारात के आगे-आगे महाराज शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपेंच बाँधे कमर से दोहरी तलवार लगाए, हाथ में झंडा लिए, जनवासे के दरवाजे पर पहुँचे, इसके बाद धीरे-धीरे कुल जुलूस पहुँचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतर कर जनवासे के अंदर गए।

कुमार वीरेंद्रसिंह का घोड़े से उतर कर जनवासे के अंदर जाना ही था कि बाहर हो-हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेजी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुँह से यही आवाज निकल रही है – ‘हमारी मदद को कोई न आए, सब दूर से तमाशा देखें।’ एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी-अभी सरपेंच बाँधे हाथ में झंडा लिए घोड़े पर सवार आए थे और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहने हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।

थोड़ी ही देर में हमारे शिवदत्त को (जो झंडा उठाए घोड़े पर सवार आए थे) इतना मौका मिला कि कमर में से कमंद निकाल, अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बाँध लिया और घसीटते हुए जनवासे के अंदर चले। पीछे-पीछे बहुत से आदमियों की भीड़ भी इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अंदर पहुँची।

हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहने हुए महाराज शिवदत्त को एक खंबे के साथ खूब कस कर बाँध दिया और एक मशालची के हाथ से, जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल ले कर उनके हाथ में थमाई, आप कुँवर वीरेंद्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने का जड़ाऊ बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रखा था, उससे रूमाल तर करके हमारे महाराज ने अपना मुँह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपेंच वही, मगर सूरत तेजसिंह बहादुर की।

अब तो मारे हँसी के पेट में बल पड़ने लगा। पाठक, आप तो इस दिल्लगी को खूब समझ गए होंगे, लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया तो मैं लिखे देता हूँ।

हमारे तेजसिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपेंच (फतह का सरपेंच जो देवीसिंह लाए थे) बाँध झंडा ले कुमार की बारात के आगे-आगे चले थे, उधर असली महाराज शिवदत्त जो महाराज सुरेंद्रसिंह से जान बचा, तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गए थे कुँवर वीरेंद्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आए। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खुटाई गई नहीं थी।

महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आए मगर आगे-आगे झंडा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गए कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रीपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को सँभाल न सके, तलवार निकाल कर लड़ ही गए। आखिर नतीजा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुँवर वीरेंद्रसिंह की शादी खुशी-खुशी कुमारी चंद्रकांता के साथ हो गई।

(चंद्रकांता समाप्त)

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